Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
View full book text
________________
---
vwrnmen
nirmal
चन्द्रिका का देतीसको श्लोक
२६४ स्थिति तबतक नहीं मानी जा सकती जबतक कि उस मिथ्यात्वका उदय नियमान है। क्योंकि मिथ्यात्य और मोक्षमार्ग इन दोनोंमें अध्यघातक या सहानवस्थान विरोध है । इसलिये मोष मार्गकी नियत व्याप्ति निर्मोह अवस्थाके साथ ही है।
निरुक्तिके अनुसार मोक्षशब्द मोक्ष धातुसे भाव अर्थमें पत्र प्रत्यय होकर बना है जिसका कि अर्थ असब-शेपण होता है। इसी तरह मार्ग शब्द शुद्धधर्थक सृज धातुसे अथवा अन्वेषणार्थक मृग धातुसे पनार है। मार्ग शब्दकी निष्पत्तिमें करण साधन प्रधान है। स्था धातुका अर्थ गतिनिवृत्ति-रुक जाना, खड़े रहना, ठहरना भादि प्रसिद्ध है । श्रतएव मोक्ष मार्गस्थ शब्दका निर्वचन इस प्रकार होता है कि मोक्ष मोक्षः। मृष्टः शुद्धोऽसाविति मार्गः मार्ग इन मार्गः मोक्षस्य मार्गः मोक्षमागः । अथवा मोती येन मार्यते स मौशमार्गः । मर्याद मोस शब्दका अर्थ है छूटना और जो यथेष्ट स्थान पर पहुंचनेके साधनभूत मार्गके समान हो उसको कहते हैं मार्ग । जिस तरह कंक्ड पत्थर कस्टक गर्न विर्यस्थुलता आदिसे रहित मार्गके द्वारा पथिक जन सुखपूर्वक चलकर अभिप्रेत स्थानको पहुंच सकते हैं उसी प्रकार मनु मव्य भी मिथ्यात्व अज्ञान असयम प्रमाद कषाय आदि दोषोंसे रहित परिणामोंके द्वारा मोक्षको प्राप्त कर सकता है--कर्मवन्यरूप संसारावस्थासे छूट सकता है । और अपने सम्यक्त्वादि गुणोंक मारा अपनी पूर्ण शुद्ध शांत निश्चल ध व अनुपम अवस्था प्राप्त कर सकता है। अतएव जो जीर कर्म पन्धके प्रतिपक्षी सम्यक्त्वादि परिणामों में स्थित है, वही मोक्षमार्गस्थ है और ये परिणाम मोहक प्रभावके बिना प्रकट नहीं होते इसीलिये जीवकी मोक्षमार्गमें स्थितिको सिद्ध करने के लिये अथवा यह बतानेके लिये कि जीव मोक्ष मार्गमें स्थित कब माना जाता है "निर्मोह" यह विरुख कारस्थानुपलब्धिरूप हेतु वाक्य यहां दिया गया है।
नैव मोहवान् अनगारः। न और एव दोनों ही अध्यय हैं । न का अर्थ होता है निवेश और एव का अर्थ होता है अपधारण । किन्तु शब्द शार के सन्धि प्रकरणमें एष के दो तरह अर्थ किये गये हैं---नियोग--निश्चित अवधारण और अनियोग-अनिश्चित भयधारण । यहाँपर नैव इस तरहका प्रयोग करके प्राचार्य ने एपका नियोग अर्थ पूचित किया है। जिससे हरसापूर्णक और जोरफे साथ किया गया निपेयके निश्चयका अभिप्राय प्रकट होता है।
मोह सन्दसे तदस्ति यस्य अर्थमें मतुप प्रत्यय होकर मोहपान् शब्द बना है। या अनगारका विशेषण है। जो कि उसके अन्तरंगमें दर्शन मोहनीय कर्मकी मिध्यान्य प्रकृतिक
१२-मोर असन इत्पतम्य धन भायसाधनों मोक्षण मोतः असन क्षेपणमित्यर्थः ॥ सृजेश कर्मणो मार्ग इवाभ्यन्तरीकरणात् ॥४०॥ अन्यपणक्रियस्ये वा करणत्वोपपतः ।।४।। राजवा १-१
३-"एवे पानियोगे अद्यय इहेष । नियागे तु मष गच्छ, ति । कातन्त्र तथा पाणिक किय-क्वेव भोक्ष्यसे अनधक्लुप्ताषेष शरदः (अनवक्तृप्तापिति-पेव भोश्यसे इत्युक्तं सनसकार्यका दिना मास्ति सम्भवस्तव मोजनस्येति गम्यते. इति तट्रिपत्पा) भनियोगे किं तवैव ।।