Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चन्द्रिका टोका तेतीसवा श्लाक मोक्षमार्गस्थः—इस पूरे शब्दका अर्थ होता है—मोक्षके मार्गमें रहने वाला ! यहां पर इस शब्द का प्रयोग साध्यभूत अभीष्ट किन्तु अप्रसिद्ध अर्थको व्यक्त करनेके लिये किया गया है। जिसको कि सिद्ध करने के लिये "निर्मोह" यह हेतुरूप विशेषण दिया गया है।
___ यों तो मोक्ष शब्दका सामान्य अर्थ छूटना है। फिर भी यहाँ प्रकरणगत अभीष्ट अर्थ आरमाका द्रव्य कर्म भावकम और नौकमसे छूटना है। ध्यान रहे कि इस अर्थ के अनुसार यद्यपि मोशका अर्थ परपदार्थसे आत्माका सम्बन्ध विच्छेदमात्र बताया गया है फिर भी इस सम्बन्ध विच्छेदके साथ ही आत्मा के गुणोंकी अभिव्यक्ति अर्थ भी अभीष्ट है। क्योंकि छुटकारा यद्यपि दो पदार्थों में हुश्रा करता है और इसलिए दोनोंका सम्बन्धविच्छेद हो जानेपर दोनों ही परस्पर में एक दुसरंसे मुक्त हुए माने और कहे जा सकते है। फिर भी यहां आत्माका ही छुटकारा प्रयोजनीमत हैं । अत एवं मोच शब्द का अर्थ उक्त त्रिविथ कमौके सम्बन्धविच्छेदक साथ ही मात्मा के विवक्षित गुणोंका अथवा सम्पूर्ण यात्माका स्वाभाविक
मोनाना विव. तितर है । यही कारण है कि श्री पूज्यपाद श्रादि प्राचार्याने मीतका लक्षण बताते समय कर्मों का प्रभाव और अपने गुणोंकी अभिव्यक्ति दोनों को ही दृष्टि में रक्खा है । तथा शब्दांका निरू. स्त्यर्थ बताते समय भी अनेक साधनों कारकोंक द्वारा ही उनकी निष्पत्ति-सिद्धि बताई है। इस विषयमें आगे चलकर विशेष लिखा जायगा अत एव यहां अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है।
मार्ग शब्द का अर्थ उपाय है । उपाय अनेक तरहके हुआ करते हैं । साधारण असाभारण, अन्तरंग, बाह, उपादान, निमित्त, स्वपररूप समस्त साधक सामग्री और प्रतिबन्धकाभाव, प्रादि । इनमें से उपेयकी सिद्धि में कर कहाँ किसको मूल्य और कब कहां किसको गौण कहा जाय यह प्रकरण और विवक्षापर निर्भर है। क्योंकि देखा जाता है कि एक जगह तो श्री ऋषभेश्वर भगवान् जैसों की, यह जानते हुए भी कि ये स्वयंभू-~-परमात्मा वननेवाले है, दीक्षा के लिये चिन्तातुर परम सम्पग्दृष्टी एक भवाचतारी अत्यन्त विवेकशील इन्द्रकं द्वारा रच गये नीलांजना कपट नृत्य रूप साधारण पाच निमित्त साधन सामग्रीकी प्रशंसा की जाती है और उसको मुख्य बनाते हुए उसका व्याख्यान किया जाता है. जब कि गरी जगह परमाईन्त्य
१-इएमवाधितमप्रसिद्ध साध्यम् । प० मु०
२--सर्वकर्मविप्रमाक्षो मोक्षः । ५-५ । अथवा मिरवशेषनिराकृतकर्ममलकलंकस्याशरीरस्यात्मनो इचिन्त्यस्वाभाविकज्ञानाद्गुणमव्यायाधमुखमायन्तिकमवस्थातरं मान इति ||स० स०॥ बन्धहत्वभाष निर्जराभ्यां करस्नकमविप्रमाक्षो मोक्षः ॥त सू०१०-२ श्रात्यन्तिकः सबकमनिरपो मोक्षः राजवा. शपधा
३-राज्यभोगालचं नाम विरज्येद् भगवानिति । प्रक्षीणायुर्दशं पात्रं सदा प्रायुकदेवरा ॥१०॥ भा..पु.॥