Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार पर भी उत्तर की भजनीयता और मोक्षरूप कार्य की सिद्धि में तीनों ही की क्रमसे पूर्णता का होना एवं तीनों की सम्पूर्णतामें ही समर्थ कारणतारे का प्राचार्योंने प्रतिपादन किया है।
अतएव सम्यग्दर्शनकी नरह सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रकी भी अत्यावश्यकताको स्पष्ट करना इस कारिकाका मुख्य एवं प्रथम प्रयोजन है। इसके सिवाय ऊपरको कारिकामें दिखाये मये हेतु-हेतुमद्भाव या साध्य साधन भावमें व्याप्ति का निश्चय कराना भी इस कारिका का प्रयोजन है। क्योंकि उक्त कारिकामें जिस साध्य और हेतु-साधनका उल्लेख किया गया है उसके अविनाभावका बोध-निश्चय करानेकेलिये विषक्षमें बाधक बल दिखाना भी आवश्यक है। क्योंकि जबतक यह निश्चित न हो जाय कि साध्यके प्रभाव भी हेतुके रहनेपर अमुक आपत्ति है तबतक व्याप्तिको निश्चिात नहीं माना जा सकता । उदाहरणार्थ-अग्निके साथ धूमकी व्याप्ति है। यहाँपर साध्यभूत अग्निके अभावमें भी यदि धूम हेतु रह सके तो इनकी व्याप्ति ठीक नहीं मानी जा सकती | और वह अपने साध्यका ज्ञान कराने वाला यथार्थ साधन भी नहीं माना जा सकता और न उसके द्वारा साध्यका ज्ञान ही यथार्थ माना जा सकता है। किन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि इनकी व्याप्ति के विपक्ष में अग्निके अभावमें भी धूमके रहने पर कार्यकारणभावक भंग का प्रसंग बाधक है। कारण यह है कि धूम और अग्निमें कार्यकारणभाव है । अग्नि कारण है और धूम उसका कार्य है। यह एक सामान्य नियम है कि कारणसे ही कार्य उत्पन्न हुआ करता है। फलतः अग्निरूप कारणके विना भी यदि धूमरूप कार्य पाया जा सकेगा या माना जा सकेगा तो कार्यकारणभावके सामान्य नियमका भंग हो जाता है। यह भी मानना पड़ेगा कि विना कारण के भी कार्य हो सकता है। परन्तु ऐसा होता नहीं, हो भी नहीं सकता। इसीलिये धमकी अग्निके साथ व्याप्ति निश्चित मानी जाती है और कभी भी कहीं भी धूमको देखकर जो अग्नि नशान होता है या कराया जाता है तो वह सत्य-प्रमाणरूप ही माना जाता है। इसी प्रकार प्रकृतमें भी यह बताना आवश्यक है कि साध्यके अभावमें हेतुके रहनेपर क्या आपत्ति है-हेतु रहे और साध्य न हो तो क्या बाधा है ? इस वाथाको स्पष्ट कर देना इस कारिका का प्रयोजन है। क्योंकि दर्शनके सम्यक् हुए विना ज्ञान चारिश भी सम्यक होते नहीं और हो भी नहीं सकते
१-एषां पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरम् ॥२८॥ उतरलाभे तु नियतः पूर्वलाभः ||२६॥ राजवा० अध्याय १ आ०२।
२-तषां पूर्वस्य लाभेऽपि भाज्यत्वादुत्तरस्य च । नैकान्तेनैकत्ता युक्ता इषांमर्थादिभेदवत् ॥६॥
तस्वश्रद्धानलाभे हि विशिष्टं अतमाप्यते । नावश्यं नापि तल्लामे यथास्न्यातममोहकम् ॥६॥ लोकवा अ० १ सू०१। इसके सिवाय देखो रखोकवार्तिक ०१०१ वार्तिक ६७ से १२ और उनका भाष्य तथा--
रत्नवितयरूपेमायोगकेवलिनोऽन्तिमे । भणे विवर्तते सतववाष्य निश्चितानयात् ॥४॥
३-विपचे मापाप्रमाणबलात्खलु हेतुसाध्ययोयाप्तिनिश्चयः, ज्याप्तिनिश्चयतः सइभावः क्रमः भाषो का, समभाव नियमोऽधिनाभाव इति वचनात् न्या. दी० । ४ स्वानुमान ५ परार्थानुमान।