Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रत्नकरसवश्रावकाचार के पक्षमें हैं तो हमको उनकी ममम्त सैनामाधन सामग्री की आवश्यकता नहीं है । और यदि वे हमारे पक्ष में नहीं हैं तो उनकी उमसम्पूर्ण सेना आदि के मिलजानेपर भी कोई लाभ नहीं है। इसतरह विभिन्न पक्षोंकी उपस्थितिके समय इस अध्ययपदका प्रयोग हुआ करता है।
पापनिरोधः-जो आत्माको सुरक्षित रखता है, उसे अपने कल्याणकी तरफ नहीं जाने देता उसको कहते हैं पाप । अर्थात् ममस्त मात्रद्य क्रियाएं और उनके द्वारा संचित होनेवाले असद्वेध अशुभायु अशुभनाम अशुभगोत्र और सम्पूर्ण घाति कर्म चतुष्टयरूप पुद्गल द्रव्य तथा मिथ्यात्व मादि के उदयसे युक्त जीव, ये सब पाप है। निरोधका अर्थ रोकना है। मतलब यह कि जिससे पाप रुके अथवा उसका रुकना, या जिसके वह रुकगया है वे सभी पापनिरोध शब्दसे लिये जा सकते हैं। जैनागममें इसके लिये संवर शब्दका प्रयोग हुआ करता है।
अन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् ? यह काकु वाक्य है। जिससे आशय यह निकलता है कि अन्य सम्पत्तिसे कोई प्रयोजन नहीं ।
अथ--पद्यपि इस शब्दके अनेक अर्थ होते हैं-यथा मंगल प्रश्न प्रारम्भ विकल्प इत्यादि। किंतु यहाँपर इस शब्दका प्रयोग 'यदि' के स्थानपर अर्थात् पचान्तर अर्थको सूचित करनेके लिये
पापाश्रवः-पापका अर्थ कार बताया जा चुद : आपला भार्या बाग स्वादिगणकी गत्यर्थक व धातुसे यह शब्द निष्पन्न हुआ है। मतलब यह है कि पाप कर्मोका आना या जिनके द्वारा पाप कर्म पाते हैं वे सभी भाव पापासव शब्दसे कहे जाते हैं ।
ऊपर "पापनिरोध" शब्दका प्रयोग जिस अर्थ में किया गया है। यह शब्द उससे ठीक विपरीत अर्थका बोध करानेके लिये प्रयुक्त हुआ है। क्योंकि ग्रन्थकर्ताकी दृष्टि में एक महान सिद्धांत है जिसको कि वे प्रकृत विषयमें उपपत्तिको बताते हुए व्यक्त कर देना चाहते हैं।
सात्विक दृष्टि से अथवा जैनागमके अनुसार समस्त वस्तु स्थिति सप्रतिपक्ष व्यवस्थापर निर्भर है। तदनुसार दो तस हैं एक जीव दूसरा अजीब,२ ये दोनोंमें अत्यन्त विरोध रहते हुए भी बहुत बड़ा सम्बन्ध भी है। वे एक दूसरेके परिणमनमें निमित्त हुआ करते हैं। अतएव दोनों ही की शुद्ध और अशुद्ध अवस्थाएं भी पाई जाती हैं | जीव द्रव्य जितने हैं वे सभी अनादि कालसे अजीव पुद्गलके विशिष्ट संयोगकै कारण अशुद्ध हैं । जब उनमें से जो जीव अपने ही प्रयासे उस अशुद्धिसे और उसके कारणों से सर्वथा मुक्त होजाते हैं तब वे ही शुद्ध सिद्ध परमात्मा को जाते हैं । अजीव तत्त्व पांच है। जिनमें धर्म अधर्म और आकाश तो जीव पुद्गलकी क्रमसे गति १-प्रायः सर्वत्र आसव शब्दही देखनेमें खाता है। किंतु प्रभाचन्द्रीय टीका आश्व शब्द भी कहीं कहीं आया है। स्व. पं. गौरीलालजीने अपनी निरुक्तिमें भी आश्रव ही लिखा है। २-अजीव दृष्य पांच हैं; पुष्गल धर्म अधर्म आकाश और काल किंतु प्रकृतमें पुद्गल विशेषसे ही अभिप्राय है।