Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
है । किन्तु यह बात हेतुरूप अन्तरंग श्राशय या परिणामों की जात्यन्तरत पर जिस तरह निर्भर हैं उसी प्रकार कर्मरूप कुदेवादिकका विशेषता पर भी आश्रित है। उस विशेषता के श्राधारपर ही Areas सम्यग्दर्शनकी होनेवाली अशुद्धि में अतिक्रम व्यतिक्रम अतीचार या अनाचारका निश्चय किया जा सकता है अतएव परिस्थितिके अनुसार ही यथायोग्य दोषका निर्णय करना चाहिये | क्योंकि सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होने या न होनेमें जिस तरह अन्तरंग वाह्य दोनों ही कारख अपेक्षित एवं आवश्यक हैं उसी प्रकार सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होजानेके बाद उसमें किसी भी प्रकारकी मलिनाके न होने देने में भी और रंग दोनों ही तरह की प्रवृतिमें संभाल रखना आवश्यक है। यहांपर जो हेतु वाक्प दिया है वह अन्तरंग परिणामोंकी संभालके लिये है और कर्मer तथा क्रियापदोंका जो प्रयोग किया है वह वाह्य बाधक साधनों से बचानेका संकेत करनेके लिये हैं । फिर भी सम्यग्दर्शन के विरोधी बाह्य विषयका परित्याग करना ही संसारसे अपनेको हटाकर विशुद्ध सिद्ध एवं कर्मनोर्मसे मुक्त अवस्थामें परिणत करदेनेकी न केवल इच्छामात्र रखने वाले किंतु उसके लिये मनसा वाचा कर्मणा अपना अनवरत प्रयत्न करने वाले प्रत्येक भयात्मा मोक्षार्थीका प्रथम कर्तव्य हैं । इसीलिये वह मुख्यतया आवश्यक हैं। इसका कारण यह भी है कि आजकल यहां हुंडावसयिणी काल प्रवर्तमान हैं जिसकेकि निमिवसे द्रव्य fararaat उत्पत्ति होगई है और दिनपर दिन वह बढ़ती ही जा रही हैं। ऐसी अवस्थामें दुर्बल हृदय भोंके सम्यग्दर्शन एवं उसकी विशुद्धिका बना रहना अत्यन्त कठिन होगया है और होता जारहा है । श्रतएव प्राणिमात्र के निःस्वार्थ सच्चे हितैषी दूरदर्शी आचार्य सम्यग्दर्शन की विशुद्धिको स्थिर रखने के लिये उपदेश देते हैं कि तीन महता और आठ मर्दों से बचाकर अपने अष्टांग सम्पदर्शनको शुद्ध रखनेवाले भव्योंको चाहिये कि कुदेवागमलिङ्गियोंको प्रणामशिरोनमनादि न करें और न उनका विनय – अभ्युत्थानादिके कारा सत्कार ही करें। प्रसंग पडनेवर भयादिकी अन्तरंग दुर्बलताओं को भी स्थान न दें। अपने भीतर जागृत ही न होने दें कदाचित् होने लगें तो उनका सर्वथा निग्रह करनेका प्रयत्न करें ।
इस हुण्डावसयिश्री काल में कुदेवों मेंसे महादेवकी अश्लील मूर्तिकी पूजाका जो प्रचार हुआ है वह भगवश हुआ है। श्री कृष्ण की सराग मूर्तिकी पूजाका प्रचार स्नेह एवं लोभवश हुआ है। वेद जैसे हिंसाविधायक कदागमका जो प्रचार हुआ है वह श्राशावशर हुआ है । इसी तरह अनेक प्रकारके पाखंडों का प्रचार एवं पाखण्डियों की जो वृद्धि हुई है उसके अन्तरंग वास्तविक कारण भय आशा ४ स्नेह और लोभ ही हैं । अतएव ग्रन्थकर्त्ता स्वयं उदाहर समा बनकर कहते हैं कि कैसा भी भयंकर प्रसंग आ जानेपर भी कुदेवादिको प्रणामादि करनेके लिये अपनेको भयादिकसे अभिभूत नहीं होने देना चाहिये !
१,२ -- इन सबकी कथाएं कथाकोष हरिवंश पुराणादि जानी जासकती है ।