Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चन्द्रिका टीका इकतीसा श्लोक चारित्रकी साधुतामें उपजीव्योपजीवक संबंध है सम्यग्दर्शनकी साधुता उपजीव्य है-झानचारित्रकी साधुता केलिये आश्रय है । शान और चारित्र इन दोनोंकी साधुता दर्शनकी साधुनाके भाश्रयसे जीवित रहती है । ज्ञान और चारित्रकी साधुता उपजीवक-उपजीविकाकेलिये किसीके आश्रयमें रहनेवाले नौकरनौकरानी के समान है | अतएव जो स्वामीकी तरह प्रधान है उसका प्रथम वर्णन करना उचित और न्यायसंगत है।
ऊपरके प्रश्नका इस कारिकाके द्वारा दिया गया यह उत्तर न केवल युक्तिपूर्ण ही है अनुभवमें भानेवाला और भागमानुसारी भी है । सभी श्रागमोंमें उनके प्रणेताओंने रत्नत्रयका वर्णन करते हुए सम्यग्दर्शनकी उत्कटना गपमानता स्वीकार की है और बताई है। अतएव प्राचार्य की प्रतिझाके विरुद्ध कह कर इस कथनका विरोध करनेका अवकाश ही नहीं है। क्योंकि आचार्यने "देवयामि" कहकर जो प्रतिक्षा की थी कि जो भगवान्ने या गणरादिकने कहा है उसीको मैं यहां कहूँगा उससे सम्यग्दर्शनकी प्रथम वर्णनीयता विरुद्ध नहीं, अनुकूल ही है। कारण सभी प्राचीन अर्वाचीन प्राचार्योंने सम्यग्दर्शनकी प्रधानता स्वीकारकी है । साथ ही दृष्टान्तगर्मित हेतु या सामान्यतो दृष्टानुमानके द्वारा ज्ञान चारित्रकी अपेक्षा अधिक साधुताके समर्थनमें जो युक्ति उपस्थित की है वह भी अनुभवमें आनेवाली है। इस समर्थन में तीन हेतु अन्तर्निहित हैं जिनको कि दृष्टि में रखकर स्वयं ग्रन्थकार आगे क्रमसे तीन कारिकाओंके द्वारा स्पष्ट करेंगे। ___ यदि इस कारिकाके द्वारा यह न बताया गया होता कि शान चारित्र की साधुताकी अपेक्षा सम्यग्दर्शन की साधुता विशिष्ट और उत्कृष्ट है तो सम्यक्त्वनिरपेक्ष ज्ञान चारित्र में भी मोक्ष मार्गव माना जा सकता था, जब कि ऐसा नहीं है। सम्यक्त्वरहित झान चारित्र वास्तव में
और मुख्यतया मोक्षके कारण नहीं है । तथा सम्यक्त्वके विना ज्ञान चारित्र नहीं रहा करते। क्योंकि वे ज्ञान और चारित्र सम्यक-यथार्थ नहीं रहा करते । परन्तु ज्ञान चारित्रके बिना भी सम्यक्त्व पाया जाता है। क्योंकि केवल ज्ञान तथा श्रुतकेवलके न रहनेपर एवं यथाख्यात अथवा क्षपक श्रेणिगत चारित्र की अनुपस्थितिमें यद्वा मुनि श्रावकके प्रत चारित्रके न रहते हुए भी सम्यक्त्व ही नहीं क्षायिक सम्क्त्व भी पाया जाता है। इस तरहसे सम्यग्दर्शनकी प्रथम वर्षनीयताके विषय में किये गये प्रश्न उत्तर रूप में कही गई इस कारिकाकी असाधारण प्रयोजनवत्ता स्पष्ट होजाती है।
शब्दोंका सामान्य-विशेषार्थ
दर्शन—यह शब्द कारिकामें दो बार आया है। दोनों ही जगह इसका अर्थ सम्यक्त्व है। इसका निरूक्त्यर्थ पहले बताया जा चुका है। यद्यपि कारिकामें दोवार प्रयुक्त इस शब्दका अर्थ एक ही है । किन्तु दोनों के पद भिन्न २ हैं। पहला दर्शन शब्द क कारकपद की जगह प्रयुक्त हुआ है और दूसरा कर्म कारकपदके स्थानपर । कर्ता और कर्म कारकका अर्थ सर्वविदित है। "स्वतन्त्रः का? अथवा यः करोति स करि "और" यत् क्रियते३ तत्कर्म" अर्थात् जो क्रिया
१-सिक कौ० । २-३-कातन्त्र सू० १४, १२ १०२-४।