Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रलकरण्डभावकाचार साधु बनने में प्रयाहा करती है । यदि अपेक्षा है तो किमको किसकी अपेण है ? इसीका म्पकरण प्राचार्य ने प्रकृत करिमान गुर्वाध में किया है। तीनों गुणगी साशनसामर्थ्य या योग्यता को देखकर वे उन्हें दो भागों में विभक्त करदेते हैं। वे एक तरफ दर्शनको और दूसरी सुरफ ज्ञान चारित्र को रखते हैं। वे देखते हैं कि ज्ञान और चारित्र अपने स्वामीको उपसुखरूप में परिक्षत करने की भावना और उत्साहसे प्रेरित होकर भले ही प्रथम अवस्थामें काम करते हों और दर्शनको अपने में सहायता या सहकारिताकी आवश्यकताका अनुभवकर उसको भी प्रोत्साहित करते हो या प्रेरणा प्रदान करते हों फिर भी उनमें यह सामर्थ्य श योग्यता नहीं है कि दर्शनकी साधुताकी अपेक्षाको छोडकर वे स्वयं साधु बन जाय ।। वे दर्शनकी साधुना के मुसापेजी है। फात स्मादादविद्यापति महान् ताकि प्राचार्यप्रवर भगवान् समन्तभद्र स्वामी ने आगमतीर्थ रुप वीर समुद्रका मथन कर अविनाभावरूर तरनको हाथमें लेकर लोगोंको पताया कि इन दानो की साधुता में परस्पर क्या अन्तर है । इस कारिकाके पूवार्थ में उसी अन्नापतिया प्रदर्शन किया गया है । विवेकी पाठक इसे देखकर स्वयं समझ सकते हैं कि यह किलप कार है। संक्षेप में उनका स्वरूप यह है कि यदि दर्शन साधु जनजाता है तो ज्ञान चारित भी साधु अवश्य बनजाने है। यदि दर्शन साधुताको धारण नहीं करता तो ज्ञान चारित्र श्रीवास्तवमें साधुतासे परे ही रहते हैं । अतएव इन दोनों की साधुवामें अन्ना
और पतिरेक देलो ही पाये जाते हैं । दर्शनकी साधुता कारणरूप साधन है और मान चारित्र की साधुता कार्परुप साध्य है। साथ ही इनमें सहभाव-साहचर्य और व्याप्यध्यापक भाव मी पापा जावा है और प्रभाव-कार्यकारण भाव भी पाया जाता है। किन्तु यह बात भी ध्यानमें रखनी चाहिये कि शरसाव और क्रमभावमें कोई विरोध नहीं है। साहचर्य और व्याप्यध्यापक भाव तथा कार्यकार भाव परस्पर विरुद्ध नहीं है। कोई यह समझे कि जहा कार्यकारख मार होता है वहाँ ऋभनास ही रह सकता है सहभाव नहीं रह सकता। क्योंकि कारखपूर्वक ही कार्य हुप्रा करता है । सौ वर बात नहीं है । सहभावी पदार्थों में भी कार्यकारणभाव पाया जाता है। जैसे कि दीप और प्रकाशमें । इस बातको अमृत चन्द्र मादि प्राचार्योने अपने पुरुषार्थ सिदधुर आदि ग्रन्थों में मने प्रकार स्पष्ट कर दियार है । इस सब कथनको ध्यान में लेने पर धान चारित्रको साधुलासे दर्शन की साधुवाकी मुख्यता अच्छी तरह समझने आ सकती है। साथ ही यह पास भी ध्यानमें रहनी चाहिये कि जहां कहीं इनमें कार्यकारणभाव बताया गया है वहां उन गुरु
कार्यकारण भाग ३ विपरमें जानना चाइये कि यदावाभावाभ्यां यस्पोत्पत्यनुत्पत्ती तसत्कारणम् । नथा इम विषयको गीतरह समझने के लिये देखो परीक्षामुख भ० ३ सूम नं० १४तथा४२,४३,11
--पृथगारापति पर्शनमहभाविनोऽपि बोपस्य। लक्षणभेन यसोनानात्वं संभवत्यनयो : सभ्यज्ञान कार्य साबळ कारणं वदन्ति जिनाः । सानाराधनमिट सम्पत्यानन्तरं तस्मात् ।।३३।। कारक कार्यविधानमा भयानकोरपि हि । दीपप्रकाशयोरिष सम्यक्त्वज्ञानयोः परम् ॥३४॥ कि.