Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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जमिनका टीका इकौना स्लोक मान शब्दका प्रयोग करके अपेक्षा या अपने रष्टिकोणको भी अमिष्यक्त कर दिया है। जिससे यह मालुन हो सके कि यह पात किस अपेचासे कहीगई है। गेकि स्यावाद सिद्धान्त के अनसार कोई भी वाक्य निरपेक्ष होनेपर अभीष्ट का प्रतिपादन करनमें असमर्थ रहनक कारण भ्यर्ष अथवा अप्रमाण ही माना जाता है। ___ यदि साधिमान शम्दका प्रयोग न किया जाय, केवल "ज्ञानधारिधान उपाश्नुते' इतना ही वाक्य बोलाजाय तो नहीं मालुम हो सकता कि दर्शनमें शान चारित्रसे किस विशेषवाका सिद्ध किया जारहा है अथवा कहा जा सकता है कि स्वतन्त्रताका प्रतिपादन दर्शन में ही की हमी गुण स्वतन्त्र हैं। जिसतरह कोई भी द्रव्य अन्य द्रष्यकी अपेक्षा न रखकर स्वनन्म अपना अस्तित्व रखती है। उमीतरह उसके जितने यनन्त गुण हैं वे भी सप अपने २ स्वरूप स्पनन्न हैं । फिर केवल दर्शनको ही स्वतन्त्र क्यों कहा बाय १.इसतरहके वाक्य कोई भमाधारक प्रयो अन सिद्ध नहीं होता। यही कारण है कि साध्याशको वमानक लिये साधिमान शब्दमा प्रयोग भत्यम्त आवरयक है । क्योंकि बस्तु स्वभावसे केवल नित्य-कूटस्थ अथवा प्रनया अनित्यपरिणामी ही नहीं है। नित्यानिस्थामक है अथवा न साया सामान्य या एकान्तत: विशेषकर ही है। किन्तु सामान्यविशंपानकर है। मतएच पद्यपि सामान्यतया समी गुण स्वतन्त्र हैं फिर भी विशेगापेशास ऐसा नहीं है । विशेषताका प्रतिपादन भेद या परिणामापंच है और इसीलिये यह परापेच हुआ करता है ! दसरेकी अपेक्षाके बिना विशेषता सिद्ध नहीं हो सकती। अतएव किमी विशेषताको जर जहां बताना हो तब वहां उस विशेषता का नाम और वह त्रिसकी अपेचासे विवक्षित हो उस परपदार्थका नामोल्लेख करना भी माश्यक हाजाता है।
साधिमान शब्द अभिप्रायको स्पष्ट कर देता है और शा को निरस करता है। क्योंकि इस शबके प्रयोगसे मालूम होजाना है कि यद्यपि सामान्यतया दर्शन ज्ञान चारित्र समान है फिर भी इनकी साधुवामें बहुत बड़ा अन्तर है सबसे पहली बात तो यह कि अनन्त गुणों से वे तीन ही भास्माके ऐसे गुख है जो कि मिलकर अपने स्वामी प्रास्माको समय संसाराव. स्वासे छुडाकर उचमसुख र अवस्थामें परिवर्तित कर दे सकते हैं। परन्तु इसके लिये सबसे वाले इनको स्वर्ष अपनी २ अनादिकालीन परिणति-चिरपरिचितप्रमान रूप प्रियाका प्रेम बोडकर साधुरा धारण करना आवश्यक है। ऐसा नहीं हो सकता कि ये भीसाधु-मनमचारी पाकर अपने स्वामी प्रसका उद्धार कर सके। यदि ये साधु होजाते हैं वो सभा अनन्त गुणा साधु होजाते हैं और प्रास्मा भी सम्पूर्णतया साधु बन जाता है। फलतः इन तीन गुणाका साधु बनना प्रात्माका साधु बनना है।
भब पिचार यह होता है कि इन तीनोंके साधु बननेका क्या प्रक्रम है । ये तीनों स्वयं पिना किसी की अपेपालिये ही साधु बन जाते हैं या इनको आपने से मिष अन्य किसी की ५-पादपयोपयुकस सू०.in -सामान्यावराषामा वदयो विष: 1400