Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
View full book text
________________
का टीका सत्ताईसवां श्लोक
२४९
स्थिति और स्थानदान में अवलम्बन है, काल द्रव्य क्रमवर्तिताका कारण है। ये चारों ही अमूर्त हैं और अपने २ कार्यमें वाह्य उदासीन निमित मात्र हैं । पुद्गल द्रव्य मूर्त है वह स्वयं भी परस्पर के संयोगसे अशुद्ध होता है और अनादि कालसे संसारी जीवको भी अपने संयोग द्वारा अशुद्ध बनाता आरहा है और बनाता रहता है असर इन दोनोंके निमित्त से पांच तत्व और बनते हैं । व बंध संवर निर्जरा और मोक्ष | जब तक जीवको पुद्गलसे भिम अपने वास्तविक स्वरूप शक्ति और वैभवका परिचय या मान आदि नहीं होता वहांतक पुद्मल कार्यकी प्रधानता रहा करती हैं और वह जीवको श्रस्व एवं बंधके प्रपंचमें ही फसाकर रखता है। किंतु जब जीवको अपनी उन चीजोंके साथ २ अधिक वीर्यताका भी अनुभव होजाता है तभी उसका अपने कर्ततव्य या साध्यके विषयमें दृष्टिकोण पलट जाता है और अपने उस साभ्यको सिद्ध करनेके लिये मार्ग भी पराधीनतासे छूटकर स्वाधीनताकी तरफ परिणत होजाता है यहींसे संवर निर्जरा और मोच तच्च बनते हैं। फलतः जहांतक पुद्गलकी प्रधानता है वहतिक उसीके संयोगकी मुख्यता है और जब उसकी तरफसे दृष्टिके हटजानेपर जीवकी अपनी तरफ दृष्टि रूप होजाती है सभीसे संवर निर्जरा और मोक्षके रूपमें पुद्गल के वियोगकी प्रधानता होजाती है फलतः आस्रव और कंध संसार के स्वरूप हैं तथा र्सवर निर्जरा और प्रोतस्त्र सिद्धावस्थाके हेतु प्रतीक एवं पूर्वरूप हैं। अतएव दोनोंका स्वरूप स्वामित्व साधन और फल भी परस्पर में विरुद्ध तथा मित्र २ ही हैं ।
सम्यग्दर्शनादि जिनका कि धर्म रूपसे ग्रन्थकारने यहां वर्णन किया है उनका जीवात्मासे सम्बन्ध हैं ने तो जीवोंके गुण धर्म या स्वभाव हैं । और संवर आदिके हेतुमद्भाव है और जो समय के विषय के रूप में आठ वस्तुएं बनाई गई हैं जहांतक स्मयके विषय हैं वहां तक उनका पुनल से संबन्ध है। वे बंध और आस्रव तत्वके हेतुमद्भाव है । अतएव दोनोंसे विरोध है । यह विरोध लक्ष्मी और सरस्वती सापत्त्यभावके समान हैं। साथ ही जब लक्ष्मी सरस्वतीकी महत्ता की प्राप्त नहीं कर सकती । पह जातीय-स्वाभाविक गुणकत अन्तर रहते हुए भी लक्ष्मी यदि सरस्वतीका अपमान करे तो वह सिहिनी पुत्रों के समक्ष पुगालपुत्रकी गर्वोक्तिकं सक्षम ही कही जा सकती है।
अस्ति क्रियापदका अर्थ प्रसिद्ध है। और "अन्यसम्पदा किं प्रयोजनम्" का सामान्यार्थ ऊपरके ही समान है।
१---सम्धार्थ सूत्रके अभ्याय १- में आसव, पमें बंध में मंजर - निर्भरा और १० में मोक्षका पर्यान किया गया है ।
-सकी कथा हितोपदेशमें आई है। जिसमें सिंहिनीने अपने रक्षित शृगाल पुत्र एकान्तमें कहा है किसुरोऽसि कृतविद्यति दर्शनीयोऽसि पुत्रक। यस्मिन् कुले त्वमुत्पन्नो गजस्तत्र प्रम्यते /
*!