Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चन्द्रिका टीका अठाईसबा श्लोक ध्यक्त कर रहे हैं। क्योंकि माधनरूपमें शीशविन व्यवहार भी मान्य तथा अभीष्ट ही है । फिर भी अन्त में वह हेय होने के कारण गोग्ग तथा उपेक्षणीय है। और आत्माश्रित विषय साध्य उपादेय एवं अपेक्षणीय होने के कारण प्रधान और महान् है । अतएव उसीकी महचाका यहाँ निदर्शन करना है। यही कारण है कि सम्यग्दर्शनके आन्तर ओजसे युक्त कहकर जहाँ उसकी प्रशंसा कर रहे और महत्ता बता रहे हैं वहीं उसे मातंगके शरीरसे जन्य भी कहकर और उसको भस्म से छिपे हुए अंगारके सदृश बताकर शरीराश्रित व्यवहारकी अपेक्षा उसकी अमहताको भी व्यक्त कर रहे हैं।
ऊपर जिन चार अर्थालंकारीकी यहां संभवता बताई हैं उनका लग साहित्य ग्रन्थों में लिखा है। अतएव जो विधान है वे तो स्वयं ही उनको यहां पटिन कर सकेंगे परन्तु अन्य साधारण श्रोताओंके लिये संक्षेपमें घटित करदेना उचित प्रतीत होता है।
रूपक-दो पदार्थों में साधम्र्य के कारण अभेद की प्रतीति कराता है । यहां पर देव अरिहंत देव या गणवर देवके देवत्व और मभ्यग्दर्शनसे सम्पन्न मातंगके देवल्पमें अभेदका प्रत्यक्ष कराया गया है। कहा गया है कि सम्यग्दर्शन से सम्पन्न मातंगको भी अरिहंत देव या गावर देव देव मानते है। मतलब यह कि सम्यग्दशन गुणकी समानताके कारण वे उसको अपनी ही जातिका अथवा अपने अभिन्न मानते हैं । सो ठीक ही है। क्योंकि सम्यग्दृष्टित्वेन दोनोंमें साथम्यं पाया जाना है और इसीलिये दोनों में यदि अभेदका बोध कराया जाता है तो वह मी प्रयुक्त
दोनों ही देव शब्दोंकी दिव्य शरीर और देवायु देवगति प्रादिके कारण स्वर्गीय आत्माका वाचक भी माना जा सकता है इस अवस्थामें तात्पर्य यह लेना चाहिये कि अरिहंत आदि की तरह स्वर्गीय आत्मा भी उसको अपने समान देव ही मानते हैं। क्यों कि अबद्धायुष्क सम्पक दृष्टि मनुष्य या पशु नियमसे देवायुका ही वन्ध किया करता है । दोनोंकी देव पर्याय में यदि कोई अन्तर है तो कवल इतना ही है कि एक की तो वतमान में देवपर्याय है और दूसरे की होनेवाली है । जो मावी है उसको भी नैगमनय से वर्तमानयत् कहा जा सकता है। अतएवं दोनोंकी देवपर्याय में सावार्य एवं अभेदका प्रतिपादनं भी असमत नहीं है। इतना ही नहीं प्रत्युत तात्विक विचार की दृधिस सर्वथा मुसंगन हैं।
व्यतिरेक-सलंकार समाचना रखनेवाले दो पदार्थों में से एक की किसी धर्म विशेष की अपेक्षासे अधिकता बताई जाती हैं । रूपक अलंकार के अनुसार सम्यग्दर्शनसम्पन्न मावंग की अरिहंत देव गणधर देव या स्वर्गीय देवोंके माथ समानता रहते हुए भी इस अलंकारके अनुसार मातंगदेहजन्यता और इष्टतिरूप अंगारकी भस्माच्छमताको दिखाकर दोनोंके अन्तर के साथ साथ एक की अधिकताका भी प्रदर्शन किया गया है। जिससे इस बातका बोध हो जाता है कि यषि सम्यग्दृष्टित्वेन दोनों में समानता पाई जाती है फिर भी कर्म नोकर्मक आश्रित पर्तमान