Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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था जब कि वास्तविक सत्य यह है कि उन्होंने वैसा करके न केवल पुण्यबंध और पापचय ही किया था प्रत्युत इससे मोक्षमागमें गमन करते हुए उन्होंने सम्यग्दर्शन को प्रभावना से पूर्ण और उद्योतित करके अपने को मोक्ष के अधिक निकट पहुंचा दिया था ? |
इसतरह विचार करनेपर मालूम होगा कि सम्यग्दर्शन का जो समय नामका दोष बताया गया है वह केवल क्रियाको देखकर ही नहीं माना जा सकता। वह सावन सामग्री प्रसङ्ग परिस्थिति के सिवाय उद्देश्य पर कहीं अधिक निर्भर है। क्योंकि देखा जाता है कि कभी तो क्रिया होते हुए भी दोप नहीं लगता, कभी क्रिया न होने पर भी दोष लगजाता है, कदाचिद दो व्यक्तियोंकी क्रिया समान होनेपर भी एकको दोष लगता है दूसरेको नहीं लगता । कभी ऐसा भी हो सकता है कि उससे एक को तो अत्यन्त प्रश्प दोष लगे और दूसरे को अत्यन्त अधिक। यह भी हो सकता है कि उसी क्रियासे दोप लगयेके बदले गुण में उल्टे वृद्धि होजाय । अत एव वस्तुतः दोषका निश्चय एवं निर्णय करने में अनेकान्त रूप वस्तुतश्च स्याद्वादसिद्धान्त और उसके प्रयोक्ता गुरुजन ही सरबर हो सकते हैं। क्योंकि अपेक्षाको छोडकर कोई भी वाक्य समीचीन अर्थका प्रतिपादक नहीं माना जा सकता | स्यात् पदके द्वारा अभिव्यक्त की जाने वाली अपेक्षा बाके उद्देश्य में छिपी रहती है। "निरपेचा नया मिध्या, सापेक्षा वस्तु से कृत्" के कहनेवाले ग्रन्थकर्ताका यह वाक्य भी सापेचही घटित करना चाहिये ।
यह भी ध्यानमे रखना उचित होगा कि प्रकृत कारिका में कर्तृ पदके स्थानपर भाया हुआ गर्विताशय शब्द उद्देश्य या अभिप्राय को नहीं बताता । तो मुख्यतया कर्ताकी विशेषताको सूचित करता है । क्योंकि कर्ता जीवात्माका प्राशय - चित्परिणाम यदि अनन्तानुवन्धी मानरूप है तो वहां पर सम्यग्दर्शनमें मल उत्पन्न होने की बात या विचारका अवकाश ही कहां रहता है। बाह तो सम्यक्त्व सद्भावमें ही उपस्थित हो सकती हैं। जो मिध्यादृष्टि है वह तो किसी भी अवस्था में क्यों न हो और कैसी भी क्रिया क्यों न करे भले ही प्रशान्त व्यवहार के साथ घोर तपश्चरथ ही क्यों न करता हो उसको समल सम्यग्दृष्टि नहीं कहा जा सकता। वह तो वस्तुतः मिध्यादृष्टि है।
यहां तो प्रन्थकार जिस आत्मधर्मको दृष्टिमें रखकर विचार कर रहे हैं उसके सद्भावमें ही उसकी मलिनता आदिका विश्वार युक्तियुक्त अथवा संगत माना जा सकता है । अत एव सम्प
१- व्यकलदेव के समान उनसे पहले और पीछे और भी अनेक महान आचार्य एवं विद्वान हुए हैं । जिन्होंने धर्म के प्रचार और प्रभावनाके लिये ऐसा ही किया है जैसे कि भगवान् कुन्दकुन्द विद्यानन्द, नेमि देव (सोमदेव के गुरु भट्टारक कुसुर चन्द, इस्तिमन, धनंजय आदि स्वयं प्रन्थकर्ता भ० समन्तभद्र की मी ए विषयमें बहुत बढी प्रख्याति है! २ – परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनबविल feerat विरोधnet नमाम्यनेकान्तम् ॥ २ ॥ पुरु० । इति विविधमंगमहने सुदुस्तरे मार्गमूड एण्टीनां । गुरुयो भवन्ति शरणम् प्रबुद्धयचकसंभाराः ||१८|| पुरुषा । "स्याद्वाद केवलज्ञाने वस्तुतत्त्वप्रकाशने "