Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रत्नकरण्डश्रावकाचार से पृषक रखना मानो महामारीके क्षत्रम शरीरको बचाकर रखना है और सथर्मामों में अस्मय प्रवृत्ति मानों अपथ्यसे बचकर पोषक तन्त्रका सेवन करना है । अतएव अष्टांग निर्माण के बाद रोगोंसे मुक्त रहने के लिये मूवृत्तिके परित्यागका उपदेश देकर अब अपथ्यसेवन न करनेके समान सम्यग्दृष्टिको अस्मय व्यवहार करनाही हितावह है । यही लक्ष्य रखकर आचार्य इस प्रकरणका इस कारिका द्वारा प्रारम्भ करते हैं।
शब्दोंका सामान्य विशेष अर्थ
सान शब्दकी निरुक्ति परिभाषा वाच्यार्थ उसके मेद फल आदिका न्याय शास्त्रोंमें यथेष्ट वर्णन पाया जाता है तथा निर्देशादि या सदादि अनुयोगोंके द्वारा आगम ग्रथोंमें उसका विशेष व्याख्यान भी कियागया है । इसके सिवाय स्वयं ग्रंथकाने अपने न्याय एवं भागमग्रंथों के अत्यन्त विशाल अध्ययनका सार लेकर इसी ग्रंथके दूसरे अध्यायमें जो कि रसत्रयरूप धर्मक दूसरे भागका वर्णन करता है केवल ५ कारिकाओंके द्वारा बतादिया है अतएव इस विषयमें यहां कुछ भी लिखना अनावश्यकही है। फिर भी यहां पर संक्षेपमें कुछ आवश्यक परिचय देदेना उचित प्रतीत होता है।
शब्दोंकी निरुक्ति विवक्षाधीन हुआ करती है । अतएव दर्शन झान आदि शब्दों तथा उनके विशेषकरूपमें प्रयुक्त सम्यक् आदि शब्दांकी भी निरुक्ति मिलर साधनोंके द्वारा शब्दकी सिद्धि बताते हुए मिष २ अनेक प्रकारसे की है। फिरभी उनमेंसे सम्यक-दर्शन-ज्ञान शब्दोंकी चारर तरहकी निरुक्ति मुख्य है। क साधन, कम साधन, करणसाधन और भावसाचन | इनके द्वारा क्रमसे कर्चा कर्म करण और क्रियाकी तरफ मुख्य दृष्टि रक्खी गई है। इनमें भी वक्ताको अप वहां जो विश्वधिन हो वही मुख्य हो सकती हैं । शान शब्दके विषय में भी यही बात है। "जानाति इति शानम्" इस कर्व साधनमें जानने रूप क्रिपाका कतो आत्मा मुख्य है । "शायते इति ज्ञानम्" इसमें कर्मरूप जानन क्रियाका विषय मुख्य है। "शायते अनेन इति ज्ञानम् यहांपर जानन क्रिया की सापकतम-करण रूप वह शक्ति-साकारोपयोग रूप परिणत होनेवाली चेतना विवधित है जिस के द्वारा जाना जाता है । 'अप्ति नम्' यहाँ केवल 'जानना' यह क्रिया मात्र--साकारोपयोगरूप परिणमन विवक्षित है। ___ आत्माका लक्षण उपयोग है जिसके कि झान दर्शन इस तरह दो भेद हैं। शान प्रारमाका अभिम अनादि निधन असाधारण अजहत् स्वभावरूप गुण है। वह सामान्यतया एक रूप है। उसमें स्वतः कोई भेद नहीं है । फिर भी निमित्तमेदोंके अनुसार उसके भनेक तरहसे अनेक भेद होजाते हैं। जो कि आगममें प्राचार्योके द्वारा बताये गये हैं। सम्पग्दर्शनके विरोधी काँके उदय अनुदयके सम्बन्ध से शानके भी मिथ्या और सम्यक भेदरूप दो व्यवदेश होजाते हैं। लोकव्यवस्था व्यवहार और तस्वज्ञान के लिये तथा विचार विमर्श के लिये मावश्यक उपयोगी प्रमारयामामाश्य व्यवस्था की रष्टि से इसी ज्ञानके सत् असत् इस सरह हो मेद होजाते है।