Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रस्सैकरसहश्रावकाचार सर्वत्र वीतराग भगवानके उपदिष्ट आगम जिसका कि लक्षण ऊपर बताया जाचका है; और सदनुसार जोकि प्राप्तोपा है उसके बदले लौकिक अज्ञानी जीवोंके यद्वा तद्वा कथोपकथनका अन्यानुसरण करना प्रबल मूढ़ता है। अतएव यह कहने की आवश्यकता नहीं रहती कि आगमकी श्रद्धाका त्रिविध मूढताओंके राहित्यस अत्यंत निकट सम्बंध है।
इसी तरह अस्मय क्रियाविशेषणका मुख्य मम्बंध तपोभनके साथ है। जैसाकि ऊपर बताया जाचुका है । मदके पाठों ही विपयोंसे युक्त रहते हुए भी उनमें अनुत्सेकताको धारणकर तपश्चरमा करनेवाले साधु अस्मय श्रद्धाके आदर्श हैं। इस तरहके महान् मोदमागी के साथ जो व्यक्ति अपने उन ऐहिक एवं दैविक उक्त प्राप्त विषयोंके कारणसे मदभरा व्यवहार करता है उसके सम्यग्दर्शनमें कौन २ सा दोष उपस्थित होता है और उससे वह किस तरह एवं कहांतक मोक्षमार्गसे च्युत होजा सकता है यह बताना अत्यंत उचित आवश्यक तथा क्रमानुसार प्रासंगिक है। इससे इस कारिका का प्रयोजन स्पष्ट हो जाता है।
. दूसरी बात यह है कि अस्मय विशेषणका क्रमानुसार दिया करारा जवरचयः था ही। तदनुसार इस विषयके वर्णनके प्रारम्भमें ऊपरकी कारिकामें केवल स्मयको स्वरूप और विषयमात्र ही बताया गया है। यह नहीं बताया गया कि इस स्मयके द्वारा किस २ तरहसे और कोनसा दोष उपस्थित हुआ करता है । सम्यग्दर्शनमें किस २ तरहकी मलिनता आकर हानि हुआ करती है। अतएव यह बताना इस कारिकाके निर्माणका प्रयोजन है। ____ महान् यौक्तिक एवं ताकि ग्रन्थकर्ता युक्ति और तकक द्वारा भी सिद्ध करके इस कारिका के द्वारा बता देना चाहते हैं कि आभिमानिक चेष्टाके द्वारा यह व्यक्ति किस तरहसे मूलभूत धर्मसम्यग्दर्शनसे रहित होजा सकता है।
शब्दों का सामान्य विशेष अर्थ
स्मय–म्यादिगणकी स्मि थातुसे अच् प्रत्यय होकर यह शब्द बनता है। इसका अर्थ अनादर करना होता है। प्रकृत में ज्ञानादि पाठ विषयों के आश्रयसे अपने सधर्माका तिरस्कार करना भवज्ञा या अवहेलना करना ऐसा अर्थ समझना चाहिये जैसा कि गत कारिकामें बतायागया है। स्मय शाब्द मे यहॉपर करण अर्थ में तृतीया विभक्ति हुई है।
अन्य-शन्द सर्वनाम है और कारिकागत धर्मथ शब्दका विशेषण है। कर्म पदका विशेषण होनेसे यह पुद्धिा है और उसमें द्वितीयाके बहुवचनका प्रयोग किया गया है।
अत्येति—यह क्रियापद है। अति उपसर्गपूर्वक गत्यर्थक इण पादुका वर्तमानकालकै अन्य पुलके एक वचनमें इसका प्रयोग हुआ है। जिसका अर्थ अतिक्रमण या उबंधन करके पलना होता है । मतलब यह कि जहाँपर जिसतरहकी मर्यादा रखकर चलना या चेष्टा अथवा व्यवहार करना चाहिये वहां उस तरहकी मर्यादा न रखना । मर्यादा एवं भौचित्यका भंग करके परीर अथवा वचनका प्रयोग करना।