Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रत्नकररावकाचार
झानक सिवाय पूजा कुल जाति चल अद्धि तप और शरीर इन शब्दों का अर्थ स्पष्ट है । क्योंकि पूजाका अर्थ आदर सत्कार पुरुस्कार सम्मान गौरव महत्त्व आदि होता है और इसमें सद्यादि पुण्यकर्मका उदय कारण है। गोत्रकर्म के उदयके अनुसार रित पक्ष में चले आये सम्मान्य वंशानुगत आचरण को अथवा संतति क्रमसे चले आये वीयसम्बन्ध को कुल और उसी प्रहार मात्र पक्ष में चले आये प्रशस्त आचरणको जाति, वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशमसे बल, सातावेदनीयादि पुण्य कर्म के उदयसे और लाभान्तरायादि कर्म के चोपरामसं प्राप्त धन धान्यादि विभूतिको ऋद्धि, चारित्रमोहनीय कर्म के मन्दोदय, क्षयोपशम, उपशम, क्षय से होने पाने इच्छा निरोध अथवा मनशानादिको ता और भारीर नामकर्म के उदयसे प्राप्त इन्द्रियों के अधिष्ठान यद्वा कर्म नोकर्म के पिण्डविशेषको शरीर कहते हैं।
भारपूर्वक धि थातुसे पाश्रित्य बनता है यह उत्प्रत्ययान्त अपूर्व क्रियापद है। उपयुक्त ज्ञानादिक पाठों ही इसके विषय हैं । मानः अस्ति यस्य म मानी तस्य भावः मानित्वम् । अर्थात अभिमान से की जानेवाली चेष्टाएं । स्मयशब्दका अर्थ मद-श्रीद्धत्य-घमण्ड होता है। गतः स्मयो येषां ते गतस्मयाः । जिनके अन्तरंगों से आभिमानिक विभाव परिणाम निकलगया है वे सब प्राप्तपरमेष्ठी या गणधरादिक गतस्मय हैं । आहुः यह क्रियापद है। धूल धातुको माह प्रादेश होकर वर्तमान अर्थ में वह प्रयुक्त हुआ है। जिसका अर्थ है-स्पष्ट कहते हैं।
तात्पर्य-ऊपरके कथन से यह तो भलेप्रकार स्पष्ट ही है कि ज्ञानादिक स्वयं स्मय अर्थात् मदरूप नहीं है। किन्तु मदके विषय है। तथा इसका मुख्य सम्बन्ध भी सधर्माओंसे है जैसाकि भागेकी कारिकासे मालुम होता है । अत एव मतलब यह होता है कि कोई भी सम्यग्दृष्टि यदि अपने अन्य सधर्माओंके साथ इस कारिकामें बतायेगये माठ विषयों में से किसी का भी आश्रय लेकर तिरस्कारका भाव रखता है तो वह उसके सम्यग्दर्शनका.स्मय नामका दोष है । इससे उसकी विशुद्धि नष्ट होती है भोर कदाचित् वह अपने स्वरूपसे च्युत भी हो जासकता है। क्यों कि इस तरहके परिणामों से नीचगोत्र कर्मका बंध हार करता है। और सम्यक्त्वसहित जीवके नीच गोत्र कर्मका बंध हुआ नहीं करता । क्योंकि उसकी बंधव्युच्छित्ति सासादन गुणस्थान में बताई है। अत एव उसका बन्म वहीं तक संभव है, आगे नहीं। यही कारण है कि समदर्शन की
१–यहाँपर जिन शब्दोका प्रयोग कियागया है ग्रन्थान्तरोमे उनकी जगह दूसरे २ पर्यायवाचक शब्दोंका भी प्रयोग पाया जाता है। उससे तात्पर्य समझने में सुभीता रहता है। यथा पूजा के लिये शील, शरीर के. लिये श्राभिरुप्य, ऋद्धि के लिये विभूति संपत् आदि । संभाषयम् जाति-कुलाभिरूविभूतिधीशक्तितपोर्चनामित अन०२-६७ । जातिपूजाकुलझानरूपसंपत्तपोवले ।। यश। प्रकीर्णक ।
२-"परात्मनिदाप्रशंसे सद् असद्गुणछादनोद्भावने च नीचैगोत्रस्य । त० सू। अथवा 'जातिरूपक नैश्वर्यशील ज्ञानसपोचले। कुर्वाणोऽहंकृति नीचं गोत्रं बध्नाति मानवः । अन ०२-५८ टीकोक।
३-सासादनगुणस्थान में २५ प्रकृतिकी बंक्च्युक्छिन्ति बताई है उसमें नीचगोत्र भी परिगणित है।