Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रत्नकरएकश्रावकाचार अपने सम्यग्दर्शन को मूढता की तरफ लेजाता है। पाखण्डिका अर्थ ऊपर बताया जा चुका है जिससे स्पष्ट होजायगा कि नीची क्रिया ऊंचा वेश, मिथ्या प्राचार, मोक्षमार्गके नाम पर स्वेच्छा. चार सावध प्रशुत्तियां, खान पानका अविवेक और स्वैराचार का जो सेवन है वह सब पाखण्ड है । क्योंकि प्रागपकी आज्ञाके वह विरुद्ध है और अन्य भोलेजन सारे चित होला उगे जाने हैं। अपने सावध कर्मोंके द्वारा वे अपने को तो संसार समुद्र में हुवाते ही है साथ ही अपने अनुयापियोंको भी डुबोते हैं। अत एव सम्याष्टिको चाहिये कि इनका पुरस्कार करके अपने सम्पग्दर्शन को मूढता से भभिभूत न होने दे।
सम्बग्दर्शन के विषय तीन बताये हैं-देव शास्त्र और गुरु।तीनों का सम्बन्ध रनत्रयसे है। फिर भी देवका सम्यग्दर्शन से शास्त्रका सम्यवान से और गुरुका सम्पक चारित्र से गुरूप सम्बन्ध है । सम्यग्दर्शनका प्रत्यनीक भाव मिथ्यादर्शन है उसके भी विषय तीन-कुदेव अशास्त्र और कुगुरु । इनमें भी मुख्यतया कुदेव-देवमूढतासे मिथ्यान्वका, कुशास्त्र-लोक मूढता से मिथ्याज्ञानका और कुगुरु-पाखण्डिमृहतासे मिथ्याचारित्रका सम्बन्ध है। तीनोंही भाव परस्पर में अधिनाभावी हैं। फिर चाहें भले ही उनमें मौण मुख्यता या तर तमवा पाई जाती हो या दिखाई पड़ती हो। अत एव एक अंशके मलिन विकत या मन्द पड़ने पर इसरे अंशोंपर भी उसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। यही कारण है कि आचाोंने तीनों ही मुहताओंका परित्याग कराके सम्यग्दर्शन को अथवा उसके साथ पाये जानेवाले यथायोग्य रजत्रयको मोहित-यूट प्रशस्त न होने देने का उपदेश दिया है।
प्रकृत कारिका में पाखंडियों अर्थात् गुरुओं से बचकर चलनेका उपदेश है। साथ ही यहां यह भी बता दिया गया है कि पाखण्डि या कुगुरु किस को समझना चाहिये । - सम्यग्दर्शन के विषयभूत सम्यग्गुरुका स्वरूप यथावसर विषयाशावातीतः आदि कारिका में बता चुके हैं। उससे बताये गये तथा जिसमें घटित न हों वही गुरु है यह अर्थादापन हो जानेसे पुनः यहां पर कुगुरु के लक्षण बताने की आवश्यकता नहीं है। ऐसी कदाचित् किसीको शंका हो तो वह ठीक नहीं है। क्योंकि प्रथम ती धर्मोपदेश में विरुति या अनेक तरह से किसीभी एक विषयको यदि समझानेका ग्रन्थकर्ता प्रयह करता है तो वह दोर नहीं है । दूसरी बात यह है कि अापत्ति भी ऐसा प्रमाख है जिसमें किमन्यवानुपपति की आवश्यकता है। अर्थापत्ति का उदाहरण प्रसिद्ध है कि "पीनो देवदत्तो दिवा न के" भत. एव रात्री कल्प्यते । अर्थात् जैसे किसीने कहा कि देवदच खूब मोटा बाजी है, परन्तु यह दिनमें भोजन नहीं करता । ऐसी जगहपर अर्यापति से रात्रीके भोजन की कल्पना सी है क्योंकि पीनत्व भोजन के विना मा नहीं सकता और वह दिनमें भोजन करता नहीं है इसलिये राशीमें भोजन करता है यह बात अर्थापतिसे मान ली जाती है। किंतु ऐसा यहां नहीं है मुगुरु के विषयमें जो विशेषण दिये गये हैं जिसमें घटित न हों उसको गुरु मान लिया जाय यह डीक