Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रत्नकरण्डश्रावकाचार दोनोंही इन्द्रियोंके विषयमें असंयत है-सर्वसाधारणमें भी गममझी जानेवाली प्रवृत्ति करता है तो वह पाखण्डी क्यों न माना जायगा | अवश्य माना जायगा ।
देखा जाता है कि गृहस्थों के लिये आदर्श साधु पद को धारण करके भी इन पाखण्डियों की इन्द्रियों की प्रवृत्ति प्रायः अनर्गल रहा करती है। दिन रातका कोई विवेक नहीं रखते। रात्री में भी भोजन करते हैं जब कि हिंसाका सम्बन्ध बचाया नहीं जा सकता । दिनमें भी मिक्षाशुद्धिका कोई नियम नहीं रखतेरे भक्ष्य वस्तु ओंमें भी सावध-मांसादि तकका भी ३मक्षण करते हैं। अत्यन्त सरस काम वर्धक पदार्थों को यथेच्छ ग्रहण करते हैं। इस तरह की रसना इन्द्रियके विषयमें लम्पटताको देखकर कौन कह सकता है कि ये इन्द्रियविजयी४ है ? और मोषमार्गके भाई - साधुपगर प्रकारेवर है : सथा भुमुजुओका नेतृत्व करने के योग्य हैं। ___ स्पर्शन इन्द्रियके विषयमें भी जो कुत्सित लीलाएं होती हैं-और धर्मके नामपर होती है उनको देख सुनकर तो संभव है लजाको भी लजा आजायगी | यह प्रवृत्ति भी न केवल सावध ही है अपितु हिंसामय भी है। अत एव हिंसा शब्द से यद्यपि यहां पर सभी सावध व्यापार ग्रहण किये गये हैं फिर भी मुख्यतया पांचों इन्द्रियोंके भोगीपमोगरूप सभी विषय समझने पाहिये जहांतक कि उनके ग्रहण करने में नव कोटीम से किसी भी कोटीसे हिंसाका सम्बन्ध पाया जाता है। __ संसार-सम् पूर्वक सु थातुसे यह शब्द बनता है । इसका प्रकृत अर्ध परिभ्रमण है। अर्थात चारों गतिवा, ८४ लाख योनियों एवं एक कोडाकोडी ६७ लाख ५० हजार कुलों में जो जीव इअरसे उधर घूममा गिरता है उसको मेसार कहते हैं । यह फलरूप वाह्य संसार है। अन्तरंग कारणरूप संमार मोहप्रमुख कम है जिनके कि उदयसे ग्रस्त प्राणी विवक्षित परिभ्रमणसे मुक्त नहीं हो पाता। इनके उदयसे यह जीव उपयुक्त विषय सेवन प्रारम्भ और परिग्रहमें प्रवृत्ति करके उन्ही कर्मोका पुनः संचय करना है और इसतरहसे संसारके ही चक्रमें पड़ा रहता है। १ अर्कोलोकेन विना भुजानः परिहरेत्कर्ष हिसाम । अाप बाधितः प्रदीपो भोज्यजुषां सूक्ष्मजीवानाम १३३ पु० सि०२-चाहे जिसके हाथ की चाहे जैसी वजार आदि वस्तु विवक तथा शुद्धि के बिना ही ग्रहण करलिया करते हैं।
३-शाक्त तथा वाममागियों के विषय में तो यह बात सा विश्रुत है। परन्तु अपने को जैन नामसे कहने वाजे श्वेताम्बर मम्प्रदायके ग्रन्थों में भी इसतरहके उल्लख पाये जाते हैं। इसके लिये देखो पं. अजित कुमारजी द्वारा लिखित श्वेताम्बरमत समीक्षा (१३.३०) में उदधृन प्रकरपा पृ० ६२ में भगवती सूत्र पृ० १५६ १५७ १५८ में आचारांग सूत्र के वाक्य जिनमें कि साधुको मांसभक्षणकी खुली आशा है।
विश्वामित्र पराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशनाः । तेऽपि स्त्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्ट्व मोहं गताः। शाल्यन्नं सघृतं पयोदधियु ये मुञ्जते मानवाः।
तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद् विन्ध्यस्तरेत्सागरम् ।। भई हरि ५-पापसहित । हिंस्यन्ते तिलनाल्या तसायसि विनिहिते तिला यद्न् । बहवो जीवा योनी हिंस्यन्ते मेधुने सत् ।।१०८॥ पुसिका इसका विशेष जानने के लिये देखो गो. जीव० मा०६ तथा ११२ मे ११६