Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
View full book text
________________
चांद्रका टोका चोवीसवां स्लोक भागममें इस परिभ्रमणरूप संसार के विषयसम्बन्थ की अपेचा पांच भेद बताये हैंद्रव्य क्षेत्र काल भव और भाव । इसका विस्तृत स्वरूप सर्वार्थसिद्धि गोम्मटसार जीवकाण्ड आदि मागम मन्थों में देखना चाहिये। राक्षः सगी सम्प्रदायोंमें संमार को हेय अथवा अनिष्ट बताया है । हेयताके ४ कारणों को स्वयं ग्रन्थकार पद्य नं. १२ में सम्यग्दर्शन के दूसरे निस्काचित अंगका वर्णन करते हुए बताचुके हैं। इनके सिवाय जन्ममरणकी प्रचुरता भी ससारकी हेयता अनिष्टता और दुःखरूपताका एक बड़ा और मुख्य कारण है। संसारमें पड़ा हुमा यह जीव एक अन्तमुहत में ६६३३६ चार जन्म और मरण किया करता है जब कि उस निगोदपर्याप में यह जीव इस पाखण्डके कारण पंहुचता है । क्योंकि पाखण्ड मायाचार रूप है भौर मायाचार तिर्यग्गति का कारण है तथा निगोद प्रायः तिर्यग्गति रूप है। यही कारण है कि परमकारू सिक भाचार्य भगवान् सम्पदृष्टियोंकी पाखण्ड एवं पाखण्डियों से पचे रहने के लिये उपदेश
मावर्त-शब्दका अर्थ भंवर होता है । जिसतरह समुद्र नद नदी मादि विशाल एवं गंभीर जलाशयों में भंवर पड़ते हैं उसी-तरह संसारमें भी उपर्युक्त निगोदादि बडे २ मवर है जिन के कि भीसर पड़जानेपर इस जीवका संसार चक्रसे निकल जाना अत्यन्त कठिन है।
वर्ती-भ्वादि गण की कृत् धातुसे कर्ता हेतुकर्ता अथवा शील अर्थ में गिन् प्रत्यय होकर यह शब्द बनता है। और अदगन्त तथा एयन्त दोनोंही तरहसे५ निष्पन होता है। जिसका भाशय यह होता है कि संसारके आवर्त में जो स्वयं पड़े हुए है साथ ही दूसरोंको भी बालनेवाले हैं।
पाखण्डी-इसकी निरुक्ति इस प्रकार होती है कि
पान्ति रचन्ति पापात्-संसारात् इति पाः आगमवाक्यानि वानि खण्डयति इति पाखण्डी अर्थात् जो मोधमार्ग या भात्मकल्याणके उपदेशका खण्डन करनेवाले अथवा उसके बिना पलनेवाले हों उनको कहते हैं पाखण्डी।
पुरस्कार-पुरस् पूर्वक धातु से पत्र प्रत्यय होकर यह शब्द बनता है। पारितोषिक मादि इसके भनेक अर्थ हैं। प्रकृतमें इसका आशय अग्रतः करपसे है। अर्थात् इसतरह के पाखविडयोंको सन्मान प्रशंसा स्तुति आदि के द्वारा बढ़ावा देना-समाजमें उनको मागे लाना उनको नेतृत्व देना भादि उनका पुरस्कार है।
पाखरिडमोहन-इसका स्पष्ट अर्थ है कि पाखण्डि विषयक मूहता। तात्पर्य यह कोई भी सम्यग्दृष्टि जीव यदि पाखण्डियोंका पुरस्कार करता है तो १-२-सर्विसिद्धि पर सू०१०। तथा जोबकाएर भव्यमार्गणकी टीका। २-"माया तैर्यग्योनस्य ।" त० सू०६-१६।४-वेखो बोधिदुर्लभानुप्रेक्षाका वर्षन । ५--संसाराषतें पतितु वर्तयितु वाशी येषां वे संसारावर्तवर्तिनः ।