Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रस्मकरएशश्रावकाचार
२०० किया है । ६ अनायतनों का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है । इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिये कि उनको सम्यग्दर्शन के दोषों की २५ संख्या अभीष्ट नहीं है अथवा उन्हे अनायवन मान्य नहीं है। वास्तविक बात यह है कि वे इन अनायतनोंको प्रकारान्तरसे पषित कर रहे हैं। उन्होने कारिका नं. ३ पूर्वाधमें जब कि धर्म के विविधस्वरूपका निर्देश किया है, वहीं उत्तराधमें उनके तीन प्रत्यनीक भावों अथात् मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रका निर्देश कर दिया है । इस तरह तीन मुख्य अनायतनोंका वहीं पर उल्लेख होजाता है। अमष्टि अंगका वर्णन करते हुए कारिका नं. १४ में इन्ही को कापच शब्द से बतादिया है। इस के साथ ही उसी कारिकामें कापथस्थोंका भी उल्लेख किया है। मिथ्यात्वादिक मुख्य तीन अनायतनोंके जो आधार हैं बेही कुदेव कुशास्त्र और कुगुरु कापथस्थ नाम से कहे गये तीन अनायतन हैं । इन्ही तीन अनायतनों का कारिकानं. ४ में परिहार या वारण करने केलिये श्राप्तादिकका "परमार्थ" यह विशेषण दियागया है । इस तरह तीन मुख्य भावरूप या अधर्मरूप अनायतन, और तीन गौण या उपचरित तद्वान् अर्थात् आप्ताभास शास्त्राभास और गुर्वाभास अनायतना को मिलाकर छह अनायतन हो जाते हैं।
जिस तरह तत्त्वार्थस्वयमें विनयके चार भेद बताये गये हैं-सम्यग्दर्शन शान चारित्र और उपचार। वहां उपचारसे मतलब सम्पष्टि सम्बज्ञानी और सम्यकचारित्रवान् से है। ये ही छह अनायतन हैं। जिनमें से सम्यग्दर्शनादि तीनोंका स्वयं धारण पालनादि करना मुख्य विनय है और तीन तद्वान् व्यक्तियों का योग्य आदर सत्कार आदि करना उपचरित अथवा गौण बिनय माना है। इसीतरह प्रकृतमें भी समझना चाहिये। ____ आगमके दूसरी तरहसे भी दो भेद होते हैं। एक श्रुति दुगरा स्मृति । द्वादशांग श्रुत
और उसका शान पहले भेदमें और जितने साथनभूत धर्म के प्रतिपादक संहिता आदि शास्त्र हैं वे सत्र दूसरे भेदमें गिने जाते है। स्वयं प्राप्तप्रतिपादित होनेसे श्रुति अथवा प्रांग पौर्य ग्रन्थ तथा तदनुकूल एवं तदविरुद्धताके कारण सभी स्मृतिग्रन्थ प्रमाण हैं। और जो इनके प्रतिकूल हैं ऐसे हिंसाविधायक वेद श्रादि तथा मोह अज्ञान असदाचार-पापाचार मादिके प्रवर्तक भारत रामायण आदि हैं वे सब क्रमसे कुश्रुत एंव कुस्मृति समझने चाहिये जो कि प्रायः अनायतनके भेदोंमें ही अन्तर्भूत होते हैं।
.: श्रुतिविभिन्मा स्मृतयो विभिन्ना को मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् ।
थर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनी येन गतः स पन्था ॥ इस तरहक अज्ञानमूलक मोहप्रायल्यको सूचित करनेवाले भी जो वाक्य लोक में पाये जाते हैं वे भी सब आगमाभास अथवा शास्त्रामासमें ही गर्भित समझने चाहिये । लोकमूढता के विषय प्रायः ऐसे कार्य समझने चाहिये जिनका कि वास्तविक रहस्प न समझकर अथवा विपरीत समझकर जो धर्म रूप नहीं हैं उनमें भी धर्म की कल्पना करना ।