Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चंद्रिका टीका बाईमा श्लोक किंतु राज्याभिषेक के समय तो मभी प्रसिद्ध तीर्थरूप नदि गोंके जलसे स्वयंभू रमण समुद्रतकर के जलसे भगवान का अभिषेक किया गया था । चक्रवर्तियों के राज्याभिषेक आदि अवसर पर भी इन नदी समुद्र आदिके जलका ही उपयोग किया जाता है। तो क्या यह भी लोकमूहता ही है ? यदि नहीं है तो इसका क्या कारण है ?
उत्तर—दि. जैनाचार्योने इन जलों को पवित्र माना है ! और व्यवहार धर्ममें उसके उपयोग को उचित तथा महत्त्वपूर्ण भी बताया है । इन जलोंसे अभिषेक करना पुण्यवन्धका कारण है, यह बात भी ठीक है। सम्यग्दृष्टि जीव भी अपने व्यवहार धर्म जिनाभिषेक पूजनादिमें इनको लेकर सातिशय पुण्यका बन्य करते हैं। यह सब भी ठीक है परन्तु यहाँ पर जो निषेध किया है उसका आशय यह है कि नदी नद समुद्रादिमें स्नानादि करना मोचका कारणभूत धर्म नहीं है। जो यह कहते भीर मानते हैं कि गंगादिकमें स्नान करनेसे कम कट जाते और जीवकी मोष हो जाती है सो यह बात मिथ्या है । इस तरह के स्नानसे बाह्य पवित्रता और शौचादि व्यव हार धर्म की सिद्धि होती है। तथा भगवानका अनिषकादि करनेस महान पुण्यके कारणभून ग्यवहार धर्मका भी निःसंदेह साधन होता है फिर भी वह जीव के मोक्षका असाधारण कारण नहीं है । कर्मनिवहरण का कारण असाधारण परिणाम तो जीवका सम्बग्दर्शनरूप अथवा रसअयरूप धर्म ही है। यही वास्तव में मोक्ष का कारण है और बन सकता है। जो बन्धक कारण को मोक्षका कारण मानता है, जो पर धर्मको प्रात्मधर्म समझता है, जो द्रब्यों के स्वतःसिद्ध स्वरूपको परन:सिद्ध समझ रहा है, वह अवश्य ही अज्ञानी है, मिथ्यारधि है। सम्यग्दर्शन वो निश्चयसे आत्माका स्वभाव होनेके कारण मोक्षका अवश्यही असाधारण कारण है। और यह युक्तियुक्त है। गंगास्नानादिक तो प्रत्यक्षही भिन्न पदार्थ हैं वे आत्माकी मोक्षके साथक नहीमाने आ सकते। फिर मोहयुक्त एकान्तबुद्धिके द्वारा माने गये विषयमें पानेवाले दोपका स्यावादद्वारा प्रमेय भनेकान्त सिद्धांत में रंचमात्र भी प्रवेश नहीं हो सकता । जैनागममें इस नदी नद समुद्र आदिके जल को जो व्यवहार धर्म में ग्रहण किया है उसका कारण यह नहीं है कि उससे कर्म धुस जायेंगे और जीव सांसारिक दुःखोंसे छूटकर उत्तम सुखरूप मुक्तावस्था में परिणत हो जायगा; किंतु उसका कारण यह है कि उनके जल सर्वसाधारण जनसे अस्पृष्ट है अत्यन्त महान हैं और पवित्र है। ऐसी वस्तुओंके द्वाराही त्रैलोक्याधिपति जिनेन्द्र भगवानका अभिषेकादि करना उचित है। जो भव्य इनको प्राप्त कर सकते है वे उनके द्वाराही अभिषेकादि करते हैं किंतु जो असमर्थ हैं वे यथा प्राप्त शुद्ध प्रासुक जलमें ही इनका मंत्रपूर्वकर संकल्प करके अभिषेकादि
१-खो मा पराण पर्व श्लोक से२१५ तक २-राज्याभिषे चने भतु विधि पशनः । स सर्वोभाप तोथाम्बुसभारादिः कृतो नृपः ।। आदि पर्व ३७ श्लोक ४ । तथा-गंगा सिंधू सरित्र्यो साक्षतस्तीर्थधारिभिः । इत्यादि । मा० ३-101
-इसके लिए देखो प्राचीन आपायों के आरचित अभिषेक पाठों का सिद्धान्त शास्त्री पं० पन्नालाल जी सोनी द्वारा सम्पादित एवं संगृहीत "अभिषेक पाठ संग्रह" !