Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
View full book text
________________
चंद्रिका टीका तेईसवां लोक श्रीपूज्यपादाचार्य ने भी अपने "महाभिषेक" पाठमें कहा है कि-- पूर्वाशादेश -हव्यासन--महिषगते-नैऋते -पाशपाणे,
बायो--यवेन्द्र--चन्द्राभरण फरिणपते-रोहिणीजीवितेश। सर्वेऽप्यायात यानायुधयुवनिजनः गार्धमाभूर्भ : स्थः -
__स्वाहा गृहीत चाय चरुममृतमिदं स्वास्तिकं यन्नमार्ग ॥ ११ ॥ इसका भी अभिप्राय वही है जो कि सोमदेव सूरीका है। इसमें भी यान मायव युवति माहित इन्द्रादिक दश दिकपालोंका मंत्र पूर्वक आह्वान कियागया है और उनमें प्रार्य यह अमृत स्वास्तिक एवं यज्ञभागको ग्रहण करनेकेलिये कहागया है।
इसी तरह और भी अनेकों प्राचार्योंके प्रमाण-अवतरण हैं जिनमें किश्वासनदेवोंका अमिषेक-पूजनके पूर्व यथाविधि पादि देकर सम्मान करनेकेलिये कहागया है। जिनका कि विस्तारमयसे यहाँ उल्लेख करना उचित प्रतीत नहीं होता। ___ अत एव यहा कहना तो उचित एवं मंगत नहीं है कि यह विषय प्राममके विरुद्ध है। भागमसे सुसिद्ध विनयको भागम विरुद्ध नहीं कहा जा सकता को दी गई सकता है जिसको कि दर्शन मोहके पन्ध का भय नहीं है।
रही पं० श्राशावरजी के उपर्युक्त वाक्य के विरोधकी बात, सो षह भी ठीक नहीं है। उक्त वाक्यपर उसके प्रकरण आदिको दृष्टि में रखकर विचारकरनेसे मालुम होसकता है कि उस वाक्यपर से यह अर्थ निकालना कि आसाधर जी शासन देवों को श्रावकके द्वारा अादि प्रदान करना अनुचित समझते हैं अथवा आगमविरुद्ध मानते हैं सो ठीक नहीं है।
प्रकरणपर दृष्टि देनेसे मालुम होगा कि वह पद्य अनगारधर्मामृतका और उम के भी उस अष्टम अध्यायका है जिसमें कि मुनियोंके सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, बंदना, अतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग नामके छह आवश्यक मूलगुणोंका वर्णन कियागया है। इनमेंसे तीसरे भावश्यक बन्दनाके वर्णन के अन्तर्गत यह पध भाया है। इसके पहले वे बन्दनाका पर्व उसके भेद बता चुके हैं। वन्दना नाम विनयकर्मका है । अहंदादि में से जिस किसी भी पूज्य व्यक्तिका भावशुद्धिर्षक नमस्कार-स्तवन-आशीर्वाद-जयवादादिस्वरूप विनय करने को बन्दना कहते हैं । अथवा हितकी प्राप्ति और अहित का परिहार होने के जो साधन है उनके माहात्म्प-शक्ति विशेषके प्रकट करने में निर्व्याजरूपसे सदा अपत करनेको विनय जर्म कहते हैं ।
सामान्यतया विनयकर्मके पांच भेद है-लोकाश्रय, कामाश्रय, अर्थाश्रय, भयाश्रय और मोपायर । इन पांच भेदों में से प्रकृत बिनय कर्मका सम्बन्ध मोचाधय विनयसे है। जैसा कि उन्हीके पच नं. ४८ के "पिनयः पञ्चधावश्यकार्योऽन्त्यो निर्जरार्थिमिः।" इस वाक्यसे
५-२-भनगारधर्मामृत २०८ पण नं. ५६, १०.४६ ।