Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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पद्रिका टीका तेईसयां श्लोक चाहिये तथा इसके लिय उनका अनुमोदन करना चाहिये । १ ___ यह तो उनका एक संक्षिप्त वाक्य है। परन्तु उन्होंन जो नित्य महोद्योत" नामका अभिषेक संबन्धी स्नान शास्त्र लिखा है जिसकी कि स्वयं ही उन्होने टीकाभी की है उसमें तो खुद विस्तार पूर्वक इस विषयका वर्णन किया गया है। अत एव अनगार धामृत के 'श्रावकेणापि" आदि श्लोक परसे यह 'मर्थ निकालना कि पं० आशाधरजी दशदिकपालपूजा के विरोधी हैं अथवा शासन देयों की पूजा या नियोगदान को वे आगम विरुद्ध समझते हैं यह ठीक नहीं है। और इसीलिये हमने जो कुछ इस विषयमें ऊपर लिखा है उसको भी आशाधरजी के विरुद्ध कहना पुतियुक्त एवं संगत नहीं है । इसके सिवाय "पातिकस्तु भजत्यपि " आदि उनके पाक्य तो विषय को और भी अधिक स्पष्ट करते हैं।
इसतरह ऊपरके संक्षिप्त कथनसे यह बात अच्छी तरह समझमें आ सकेगी कि श्रावक जो कि नित्य एवं आवश्यक कर्तव्य देवपूजा का पूर्ण अधिकारी है, और पुजाका वास्तविक तथा पूर्ण फल उसके यथाविधि किये बिना नहीं हो सकता ऐसी अवस्थामें विधिके अंतर्गत आगमवर्णित शासन देनोंका पूजन-नियोग दान करने पर वह किसीभी प्रकार दोषभाक नहीं हो सकता। क्योंकि दोपका कारण तो आशयका भेद हो सकता है। जबतक उसके माशयमें किसी प्रकारका विकार--विभाव अथवा विपर्यास नहीं है और केवल भागमोक्त विधि का आदर करके उसको मानकर और सत्भावनापूचक वैसा करता है तो उसको दोषमाक पद्धा उसके सम्यग्दर्शन को समल किसतरह कहा जासकता है ? वहीं कहा जासकता । दोषका कारणभूत श्राशय भेद जिन प्रकारों से संभव हैं वे चार प्रकार ही इस कारिका में ग्रंथकर्ता श्रीभगवान समन्तभद्र स्वामीने आशा, रागद्वेषमलीमसत्व (अनन्तानुबन्धि कमायोदय युक्तत्यअथवा मिथ्याष्टित्व ) बरोपलिप्सा और उपासना शब्दोंके द्वारा व्यक्त कर दिये हैं।
ब्रतों की तरह सम्यग्दर्शन के भी चार दोष-अतिक्रम व्यतिक्रम अतीचार और अनाचार होते है । ये दोष श्राशा आदि के साथ किस तरह घटित होते हैं यह बात ऊपर लिखी जा 'चुकी है। जिसका मतलब यह है कि जबतक सम्यग्दर्शन इन दोषों से रहित नहीं हो जाता तब तक वह मोक्षमार्गक सम्पादन में वस्तुतः असमर्थ है । इसका अभिप्राय यह निकालना प्रयुक्त होगा कि-इन अतिक्रमादि देशों के लगर्नपर सम्यग्दर्शन समूल नष्ट होजाता है। अन्यथा प्रायः सभी विद्याधर जो कि मानुपक्षकी एवं पितृपक्ष की नाना प्रकारकी विद्याओंको सिद्ध किया करते हैंतच विद्याओंके अधिपति देव देवियोंकी आशा-एवं परोपलिप्सासे प्रेरित हो कर ही उपासना किया करते हैं उन सबको तथा उन्हीके समान अन्य महान व्यक्तियों को भी मिध्यादृष्टि ही कहना पडेगा। किन्तु वास्तबमें ऐसा नहीं है। हां, यह ठीक है कि इसतरही प्रवृत्ति करनेवालों
१--इस कथनमें वृत कारित अनुमोदना के तीन भाव व्यक्त होते हैं। २-यह ग्रंथ श्रीयुत सिद्धान्त शास्त्री पं० पन्नालालजी सोनी द्वारा सम्पादित “ अभिषेक पाठ संग्रह " में श्री बेनजीलाल ठोल्या दि० जैनमंथ माला समिती द्वारा कई घर्ष पूर्व प्रकाशित हो चुका है।