Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चंद्रिका टीका बाईसवां श्लोक भागोंमें निपल किया जासकता है उत्तम मध्यम और जघन्य । जीवादि सचोंक यिषपमें स्कप विपर्यासादिक रहते हुए भी प्रवृत्ति में इन्द्रियषिजय दा कायवलेशादि पाया जाय यह जघन्य
और जहां प्रवृत्तिमें अनर्गलता हो वह मध्यम तथा जहां जीयादितत्वों के विषयमें भी भूलमें प्रमान्यता हो तो वह उत्तम दर्जे की मिथ्या मान्यता है।
आत्माके ऐहिक एवं पारलौकिक किसी भी तरह के हिताहितकी तरफ दृष्टि न देकर केवल "भेडिया पसान " या 'गतानुगनिकता' से चाहे जैसे कार्यमें प्रकृत्ति करना भी इस उत्कृष्ट मिथ्यामान्यतामें ही अन्तर्भूत है । इसीको आगममूहता गा लोकमूहता भी कहते हैं । जबतक कोई भी बीव इस तरह की प्रवृत्तियों में विश्वास रखता है कि इनसे श्रात्माका हित हो सकता है त - तक उसके सम्यग्दर्शन नहीं माना जा सकता। क्यों कि सम्यग्दृष्टि जीव यत्पन्त विषेकपूर्ण हया करता है। अतएव इस कारिकाके द्वारा यह बता देना आवश्यक है और यही इसका प्रपोजन है कि जिसके भद्धान में से इस तरह की मूर्खनापूर्ण मान्यताएं निकल गई है, वास्तव में उस विवेकशीलके सम्यग्दर्शनका अस्तित्व माना जा सकता है। ____ आगे मानके प्रकरण में कहा जायगा कि अध्याप्ति अतिव्यामि और असंभव इन दोपों स रहित साल के द्वारा जो वस्तु का वेदन होता है उसको ज्ञान-सम्यग्ज्ञान कहते है । यही बाप्त प्रकत में भी समझनी चाहिये । मालुम होता है कि अन्धकार ने जो सम्यग्दर्शनका लपवं चताया है उसमें भौधे यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि प्रख्याप्ति अतिव्याप्ति और असंभव हन तीन दोषों से रहित श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। इनमें से अध्याति दोषका वारण करने के लिए दिये गये अष्टांग विशेषण का स्पष्टीकरण ऊपर किया जा चुका है। असंभव दोष निवारणार्थ दिये गये अस्मय विशेषणका वर्णन आगे किया जायगा । यहाँपर अतिम्पासि दोषका वर्मनकरनेके लिए दिये गये विशेषम 'त्रिमूढापोह का वर्णन करनाभी उचित एवं आवश्यक है।
वस्तुका स्वरूप विधिप्रतिषेधात्मक है । अतएव किसी भी विषय का एकान्ततः विधिरूप से अथवा प्रतिषेषरूपसे ही यदि वमान किया जाय तो उससे यथावत् स्वरूपका बोध नहीं हो सकता । यही कारण है कि यहां पर यह बताना अन्यन्न आवश्यक है कि जो श्रेयोनार्ग से सम्बन्धित विषय अयथार्थ है उक्त समीचीन प्रामादिके स्वरूपसे रहिन या विपरीत है में सभी श्रदान-धर्मडप सम्यग्दर्शन के अन्तरूप हैं। यदि उनका भी श्रद्धान समीचीन-पथार्थ विषयों
१-ये शेनों हो लोक प्रसिद्ध कहावते हैं। दोनों में अन्तर अनभ्यवसाय और अविवेक का है। विना से ही जो महों सरीखो प्रवृत्ति इसको भेड़िया धमान कहते हैं एफभेड़ यदि कूएमें गिरती तो पीछको सभी भेडे गिरती बली जाती हैं। किसो अच्छे व्यक्ति के द्वारा समयानुसार किये गये विचार पूर्ण कार्य का रहस्थ न समझकर सदा हो अनुकरण करमा "गतानुगसिफना" है । जैसा फि हितोपदेशकी इस लोक से सम्बन्धित कथासे जाना जासकता है कि गतानुगतिको लोको न लोकः पारमार्थिकः । मृत्तिकापुजमावागतं मे सात्रभाजनम् । २- अन्यूनमनतिरिक्तं याभातध्यं जिना च विपरीतात् । निःसन्देहं वेद यदाहुस्तद् मानमामिनः ।