Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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पद्रिका टीका इक्कीसवां सीक किसी वृक्षकी कोटरमें अग्नि जलरही हो और उसके पत्रों पुष्पों फलोंपर उसका कोई भी प्रभाष न पडे यह जिस तरह संभव नही उसी प्रकार सम्पग्दर्शन के अन्तरंगमें प्रकाशित होतेहुए सधर्मा और विधर्माओं के प्रति अथवा स्त्र और परके कर्तव्यमें श्रीचित्यका संचार न हो यह मी संभव नहीं है। निःशंकतादिके साथ उपगृहनादिका जैसा कुछ सम्बन्ध है वह पहिले वताया जा धुका है । अतएन उसको यहाँ दुबरानेकी आवश्यकता नहीं है । उपदणमें संत्रदान, स्थिति-- करणमें अपादान और वात्सल्यमें अधिकरण कारक दिखाई पड़ता है। किंतु प्रभावनामें धम की सन्तति चालू रखने के लिये नवीन वीज वानेका कार्य हुआ करता है। ___ फलके बिना कोई भी काय करना बुद्धिमत्ता नहीं है । उसी तरह फल निष्पचि किस तरहसे हो सकती है यह देखना भी आवश्यक है । सम्पग्दर्शनका फल उपगृहन आदिके द्वारा ही हो सकता है। ऊपर यह बताया जा चुका है कि उपगृहनादिके विषय क्षेत्र स्व और पर दोनों ही हैं। शंका आदि अतीचारोंसे सम्यग्दर्शनके रहित होजानेपर भी यदि स्त्र और परके डोषोंका निहरण तथा गुणोंका संवर्थन नहीं होता तो उस निर्दोष सम्यग्दृष्टिको भी ठीक ऐसी कन्या सती सुन्दरीके समान ही समझना चाहि५ जिससे कि पुत्रास न होमले पतिको निराफलता तथा कुलमें धार्मिकताका' संरक्षण प्राप्त नहीं होता। यदि विपरीत या मिथ्यावातावरणादिके मिलनेपर जो अपनेको भी स्थिर नहीं रख सकता वह दूसरोंको क्या बचा सकेगा। नपुंसकके हाथमें पाये हुए उत्तम खनके समान कायर या चलचित्त व्यक्तिका सम्यग्दर्शन व्यर्थ है । क्रोधी व्यक्ति जिस तरह अपना कार्य सिद्ध नहीं कर सकता । उसी तरह वात्सल्यहीन सम्बग्दर्शन भी सफल नही हो सकता। जिस सम्यग्दर्शनका कार्य प्रभावना नहीं है वह तो प्रभुत्वहीन राजाके समान दूसरों से प्रभावित होकर अपना अस्तित्व भी खो दे सकता है। यही कारण है कि इन कार्यरूप अंगोंके विना सम्यग्दर्शनका अस्तित्व स्वीकार करनेमें भी भाचार्योंको संकोच होता है। वे कहते हैं कि
दोष गृहति नो जातं यस्तु धर्म न हयेत् । दुष्करं तत्र सम्यक्त्वं जिनागमवहि:स्थितेः॥ तपसः प्रत्ययस्यन्तं यो न रक्षसि संयतम् । नूनं स दर्शनाद्वाबः समयस्थितिलानात् ॥ चातुर्वर्णस्य संघस्थ पथायोग्य प्रमोदवान् । वात्सल्य यस्तु नो कुर्यात् स भवेत् समयी कथम् ।। झाने तपसि पूजायां यतीनां यस्त्वमूयते । स्वर्गापवर्गभूलक्ष्मी न तस्याप्यस्यते ॥२ १-जसमें पली बाई धर्मरूप धानावि किमाए', अथवा आर्यषटक-देवपूजादिफ नित्यके पटकन निरवान घलते रहें इसीलिये कन्याका दान और आदान हुआ करता है यह फल यदि नहीं है, विवाहका फल इन्द्रियसूप्तिम्मन्न होनेसे वह प्रशस्त और पार्योचित नह माना जा सकता । इसीलिये महापंचित माशाधरजीने सागारधर्माभूतमें कहा है किभाधनादिक्रियामम्प्रत्रताधमधेदवाया। प्रदेयानि सधभ्यः कन्यादीनि यथोचितम् । धर्मसंसनिमामिष्टा रतिं वृत्तकुलोम्नति । देवादिसति बेच्छन् सत्कन्यां यत्नवो बहेत ॥ १-परास्तिकक जारवास २ ।