Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रस्नकरण्डश्रावकाचार
लिये वस्तुतः प्रयत्नशील नहीं हो सकता । यदि कोई व्यक्ति आत्मद्रव्यको मानता है और उसके संसार तथा मुक्त इसतरह दो अवस्थाओके साथ इस चातको मानता है कि संसारपर्याय छूटकर सिद्ध अवस्था हो सकती है। किंतु उसके उपायके विषय में विपर्यस्त हैं। वह वास्तविक उपायों से तो विचिकित्सा या ग्लानि अथवा उपेक्षा रखता है और अपास्तविक या विपरीत उपाळेमें यत्नशील है तो वह भी श्रेयोमार्गको सिद्ध नही कर सकता और न उसके फलको ही प्राप्त हो सकता है । इसीतरह चौथी बाद क्रियाप्रवृत्तिके विषयमें समझना चाहिये । जो या तो आत्माको ही अक्रिय मानता है, अथवा वास्तविक क्रियाविधिसे अपरिचित-अज्ञात है या विपरीत क्रियाओं मे सिद्ध होना स्वीकार करता है, तो एसा मिथ्यादृष्टि यद्वा कोई प्रमादी है- यथार्थ बत तपश्चरणादि क्रिया करने में कायर है तो वह भी यथार्थ श्रद्धान--सम्यग्दर्शन होजानेपर भी सिद्धिको प्राप्त नही हो सकता। क्योंकि संसारके या बन्धक कथित चार या पांच जो कारण बताए हैं उन सभीके लूटे मिना जीनामा पूर्ण माही बनता । मिथ्यात्वके छूट जानेपर सम्यक्त्व के होजानेपर भी विरतिपूर्वक अप्रमस होकर आत्माको तुन्ध करनेवाले अथवा मलिन करनेवाले यता अपने ही स्वरूपमें सर्वश्रा स्थिर न रहनेदेनेवाले कारणों से रहिन करनेकेलिये प्रयत्न करना यावश्यक रूपमें शेष रह जाता है। जो इस बातपर वस्तुतः पूर्ण विश्वास नहीं रखता अथवा कायर प्रमादी है वह भी तबतक सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता जबतक कि अपने सम्यग्दर्शनको सवांशमें पूर्ण नही वनालेता।
इस तरह विचार करनेपर मालुम हो सकता है कि जबतक यह जीव सामान्य वस्तुस्वरूपके विषयमें और मुख्यतया जीवतत्त्वके विषय में पूर्णतया समीचीन दृढश्रद्धावान नहीं है किसी भी अंशमें अपूर्ण है मलिन है या अस्थिर है तबतक वह सम्यक्त्वक वास्तविक फलको प्राप्त नहीं कर सकता । स्वरूप विपयांसके कारण सशंक, शुद्धावस्थाकी अश्रद्धा कारण सांसारिक विषयों में साकांच, अनन्तसुखमय शुद्ध सिद्धावस्थाकी सिद्धि के वास्तविक उपायोंमें ग्लानियुक्त एवं प्रलस प्रमच क्रियाहीन मूढ पुरुष सम्यग्दर्शनके फलको प्रास नही हो सकते । क्योंकि इसतरहके व्यक्तियोंका सम्यग्दर्शन एक २ अगसे हीन है।
जिस तरह निःशंकितादि चार अगोंक विषयमें यहां बताया गया है उसी तरह उपगृहन या उहणादिके विषयमें भी समझना चाहिये 1 अन्तर इतना ही है कि पहले चार अंग निषेधरूप हैं अतएव सम्यग्दर्शनके विषयभूत तत्वस्वरूपके विषयमें मान्यताकी अवास्तविकताको दृष्टिमें रखकर घटित करने चाहिये । परन्तु प्रान्तम चार अंग विधिरूप है इसलिये सद्र पताको लक्ष्पमें रखकर षटित करने चाहिये।
उपगृहन मादि सम्यग्दर्शनके कार्य हैं । प्रसंग आदिके न रहनेसे वे भले ही दृष्टिगोचर नहीं फिर भी भावरूपमें रहते अवश्य हैं।
१-मिध्यादर्शन भविरचि प्रमाद कषाय और योग इसतरह पांच भौर में ही प्रमादके सिवाय शेष बार।