Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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सभ्यदर्शनका लक्षमा क्यान करते हुए प्राचार्य ने श्रद्धानरूप कृक्रिया के जो तीन विशेषस्य दिये थे उनमेंसे दूसरे "अष्टांग" विशेषण का वर्णन समाप्त करके अब प्राचार्य पहले 'त्रिमूढापोद' विशेपणका कथन करते हैं । मूढता प्रायः तीन प्रकारकी है-देवमूढता आगममूढता और पाखण्डीमूहता। इनमें से सबसे पहले यहां आगममूढता का स्वरूप बताते है
आपगासागरस्नानमुच्चयः सिक्ताश्मनाम्॥
गिरिपातोऽमिपातश्च लोकमूढं निगवते ॥ २२ ॥ अथ-मदी और समुद्र में स्नान करना, बालू पत्थरोंका ढेर लगाना, पर्वतसे गिरना और अनिमें पडना, लोकमूहसा है ऐसा आचार्योंने कहा है।
प्रयोजन--परमार्थभृत माम आगम और तपोभृत् के अष्टांग श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा गया है। इससे यद्यपि यह वात स्पष्ट हो जाती है कि यदि परमार्थ विशेषण से रहित प्राप्त
आदिका श्रद्धान किया जाय तो वह सम्यग्दर्शन नहीं माना जा सकता। परन्तु यह विषय तषतक अच्छी तरह समझमें नहीं आ सकता जबतक कि सम्यग्दर्शन के स्वरूपको भलेनकार समझाने के लिए उसके विषयभूत यथार्थ प्राप्तादिका जिसतरह वणन किया है उसीप्रकार अपरमार्थ प्राप्तादिका स्वरूप भी न बता दिया जाय । दोनोंही के स्वरूपको देख समझकर ही उनमेंसे एक को हेय और दसरेको उपादेय मालुम होनेपर छोडा और ग्रहण किया जा सकता है अतएव सम्यग्दर्शन को अपने विषय में हड करने के लिए ऐसे विरोधी-अश्रद्धेय विषयोंका स्वरूप बताना भी उचित एवं आवश्यक है जिनमें कि मुमुक्षुओं को अपनी श्रद्धा मोहित नहीं होने देनी चाहिये । इन विरोधी तत्वोंका स्वरूप हुंडावसर्पिणी कालमें बताना और भी आवश्यक हो जाता है जब कि परिणामकद मिथ्या विषयोंका प्रचार बढ़ रहा हो । ___यद्यपि पे विरोधी विषय प्रकृतमें तीन मूडताएं ही हैं जिनका कि ऊपर नामोल्लेख कियागया है। फिर भी इनमें आगममहता सबसे बलवती और प्रधान है। क्योंकि वह शेप दोनोंही मदतानों की मूल है । उसके द्वारा ही देवमूढता एवं पाखण्डि मूहता का प्रचार होता और पाखण्डियों की संख्या बहती हैं।
लोगसे सुनकर या उनकी क्रिया को देखकर जो मान्यताएं वनती हैं ये सब बागमनामस कही जा सकती हैं। सामान्यतया इन मान्यताओंको दो भागोंमें विभक्त किया जा सकता है। एक समीचीन दुसरी मिध्या । जो युक्ति अनुभव तथा समीचीन ताविक विचार से पूर्ण है, जिन का फल दुःखोच्छेद तथा परिपाक कल्याणरूप है यह समीचीन और इसके विपरीत जो युक्ति. हीन, अनुभवके विपरीत तथा अतान्त्रिक विपय पर आश्रित है। जिनका ऐहिक फल दूःख तथा पारलौकिक फल प्रवद्य एवं अहितरूप हैं वे सभी मान्यताएं मिथ्या हैं।
इसतरहको निध्या मान्यताओ उच्चावच रूप और स्थान हो सकते हैं फिर भी उन्हें तीन {-प्रायःकहनेका आशय यह है कि पुरुषार्थसिद्धथु पायमें मूढताओंके चार भेदीका उल्लेख पायाजाता है।