Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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समीचीन धर्मका धंस करनेवाले हैं वे स्वभावसे ही मेरुके समान स्थिर गुणगुरुओंपर दुरपवाद का प्रहार करने के सिवाय और करभी क्या सकते हैं ? यह कहकर और अन्य कथा करके विनयपूर्वक आज्ञा लेकर कहासे अपने घर आगया। किंतु इसके बाद अन्य अपराध को निमित्त लेकर अलिको अवज्ञापूर्वक अपने राज्य से निकाल दिया।
चारों ही मन्त्री यहां से निकलकर कुरुलंगल देशक हस्तिनागपुरमें पहुंचे। इन दिनों वहाँ के राजा महाभद्र अपने बड़े पुत्र पक्ष को राज्य देकर छोटे पुत्र विष्णुकुमार के साथ दीक्षा थारण कर तपोवनको चले गये थे । अतएव पम ही राज्य चला रहा था। चलि सादिक चारों ही उसके मन्त्री बनगये। एक समय बलि, कुम्भपुरके राजा सिंहकीतिको जिसको कि वश करने के लिए पम चिंतित रहा करता था, छलपूर्वक बांध लाया और उसे उसने पत्र के सामने उपस्थित किया। पद्मने प्रसन्न होकर पलिसे यथेच्छ वर मांगने को कहा परन्तु पालने कहा-'देव ! मुझे जब
आवश्यकता हो तव मैं यथेच्छ वर मांग सकू, कृपया यह स्वीकार करें । पम ने यह स्वीकार कर लिया कुछ दिन बाद अकम्पनाचार्य संघसहित हस्तिनापुर पहुंचे । बलि आदिको जब यह बात मालुम हुई तब उन्होंने यह सोचा कि अब यहां भी हम लोगोंका अपमान न हो, इसके लिये उचित उपाय करना चाहिये । फलतः पलिने उक्त वरके बदलेमें राजा पबसे कुछ दिनके लिये राज्यका सर्वाधिकार प्राप्त कर लिया और जहां संघ ठहरा था वहां और उसके चारोंतरफ मुनियों
-यह कथासार हमने यशस्तिलक के छठे अाश्वास में अणित कथाक श्राधारपर दिया है। किंतु रत्ना करएड की प्रभाचन्द्रीय टीकामें जो कथा है उसमें इस प्रकरण का उल्लंख दूसरी तरह से दिया है। उसमें बताया है कि "राजा मन्त्री श्रादिक भानसे पहले ही अकम्पनाचार्य संघको आदेश लिया था कि राजा आदिके आनेपर किसीसे भीभाषण नहीं करना। तदनुसार राजा मन्त्री श्रादिका आशीर्वाद नही दिया । फलतः सब वापिस लौट गये। मार्ग में राजास मन्त्री बलि कहता जा रहा था कि ये सब मूर्ख हैं इसी लिये इम्भसे मौन धारण कर बैठे हैं । इसीसमय सामनेसे श्रुतसागर नामके मुनिको आसा हुआ देखा जो कि नगर से आहार करके आरहे थे और जिन्होंने कि आचार्य महाराजकी आमा सुनी नहीं थी। संघ आज्ञा प्रसारित होनेसे पहले ही वे चर्याक लिये नगरको चले गये थे । उनको देखकर बाल बौना वेखो यह भी एक कुर्तिभरी बैल सामनेसे रहा है। यहीपर दोनों का--श्रुगसागर और वालका शास्त्रार्थ हुआ जिसमें किं स्याद्वाद के बलपर श्रुतसागर की विजय हुई और बाल पराजित हुआ। यह सब राजाके सामने ही हुआ। श्रुतसागरने आकर जब आचार्य महाराजसे सब वृत्तांत कहा तो सम्पूर्ण सघ पर भापति न आ सके इसके लिये काचायने श्रुतसागरको आज्ञा दीक जहां शास्त्रार्थ किया था वहा जा कर गत भर भ्यानस्थ होकर खडे रहो। श्रुतारने यहाँ किया। उधर अतिजित होने कोष मान से अन्धे हुए चारोही मन्त्री हाथ में खबग लकर संघका वध करने को रात्री में आरह थे कि मीच में ही श्रुतसागर उन्हे खडे दिखाई दिये। उन्होंने सोचा कि हमारे अपमानका मूल निमित्तभूत यही सबसे पहले प्रकला यहाँ मिल गया, अच्छा ही हुश्रा। यह सोचकर चारोनेही एक साथ भुतसागर पर स्वा का प्रहार किया । किंतु उसी समय नगर देवठाने उनको कील दिशामातःकाल दर्शनाथ आनवालाने तथा अन्य लोगोंने यह दृश्य देखा राजापर समाचार गया। उसन इनको गंधपर चढ़ाकर राज्यस निकाल दिया। वहां स चलकर इस्तिनागपुर के राजा पलके ये चारोही मन्त्री बन गये। " इसतरह प्रभायन्द्रीय टीका म शास्त्राधेका ओर उसमें पराजय जनित अपमानका वडला लेने की प्रवृति का सीधा सम्बन्ध भकरपनाचार्ग से न बताकर श्रुतसागर से पताया गया है। तथा यरास्तिलक में वध करने के लिये मन्त्रीयों के जानेका शातका भी उझेख नहीं है।