Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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बौद्रिका टीका उन्नीसवा बोमना नाक मय में उधानकी तरफ लोग क्यों जा रहे हैं ? इसी समय वनपालने आकर सूचना दी कि हे देवा नगरके उपवन में प्रकम्पन नामके प्राचार्य संघसहित आये हैं। जिनके प्रसादसे सभी ऋतु के पच फल फुलसे युक्त हो गये हैं और उन सब ऋतुभोंके फल फूल सामने रखते हुए बोलाहे नाथ ! सम्पूर्ण नगर उनके दर्शन के लिए उत्साहित हो रहा है । यह वनदेवता भापके दर्शन के लिए मी उत्सुक है। राजाने यह सूचना पाकर जानेका विचार करके बली से पूछा। परन्तु बलि आदि चारोंही मंत्रियोंने इसका विरोध किया । बलिद्वारा की गई अपने पांडित्य की प्रशंसा सुनकर राजाने सोचा-यदि यही बात है तो शूर और कायर की परीक्षा रखमें हो जायगी और मना के लिए बनेकी हमादी की । सथाम्थान पहुंचकर पर विजयशेखर हाथीसे उतरा और आर्य वेशमें अपने प्राप्त और परिवार के साथ क्रमसे अम्मनाचार्य के पास पहुंचकर उनका यथायोग्य उसने अभिनन्दन किया। सथा उचित स्थान और आसनपर बैठकर विनयपूर्वक वर्ग मोष सम्बन्धी चर्चा की और उनका उपदेश सुना । ___ प्राचार्य महाराज के उपदेशमें स्वर्ग मोक्षका प्रसंग मासेही वतिने पूछा- स्वामिन् ! स्वर्गमोत के अस्तित्व के सम्बन्ध में आपके पास कोई प्रमाण भी है ? या केवल आग्रह ही है। जब यह स्पष्ट है कि नवीन क्य सुन्दर स्त्रियां और भोगोपभोगके योग्य सामग्री ही स्वर्ग है, सब इस प्रत्यक्ष सिद्ध विषयको न मानकर प्रमाणसे प्रसिद्ध स्वर्गादिककी केवल कल्पनाकर उसको मानना दुराग्रह ही कहा जा सकता है।
बलिको उद्धत देखकर मी अकम्पन श्री अकम्पनाचायने पूछा- प्रमाण क्या केवल प्रत्यक्ष ही है ? उत्तरमें बलिके यह कहनेपर कि "इसमें क्या संदेह है ? प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है जिससे सम्पूर्ण विषयों की सिद्धि हो सकती है और मानी जा सकती है।" प्राचार्य महाराज बोले
अच्छा, ऐसाही है तो आपके माता पिताके विवाह के अस्तित्वमें क्या प्रमाण है ? और अपने वंशके पूर्व पुरुषोंके अवस्थानको क्योंकर मानते हैं ? क्योंकि ये अमेय विषय आपके प्रत्यक्ष इन्द्रियगोचर तो नही हैं। आप यदि अन्य प्रामाणिक पुरुषोंके कथन का आश्रय लेंगे तो आपका पच खंडित हो जायगा और परमतकी स्वीकृति सिद्ध होगी।
इसपर बलि निरुत्तर होगया। उस समय उसकी अवस्था ठीक "उभयतः पाशरज्जुः" की कहावतके अनुसार इसतरह की हो गई कि 'एक तरफ नदीका भर्यकर पूर और दूसरी तरफ भदोन्मत हस्ती ।" सभाके हृदयका आकर्षक एवं संतोषजनक उत्सर न पाकर बलिने निरगल असभ्यशब्दर्भित बोलना शुरू किया।
इसी समय राजाने मनुतुओं के समक्ष अशिक्षित जैसे वचन बोलनेवाले बलिसे, हृदयमें याथात्म्यको समझलेने पर भी सर्वसाधारण के सामने मन्त्री की प्रतिष्ठाका भंग न हो इसीलिये कुछ भी न कहकर प्राचार्य महाराज से कहा___ भगवन् ! जिनको पर्याप्त ववज्ञान नहीं है, जिनकी चिपचि महान मोह से अन्धी है, जो