Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चंद्रिका टीका उन्नीस बीसवां श्लोक और उनकी महारानी चेलिनीका पुत्र दारिषेण था जो कि उत्तम श्रावक था । एक समय वारिषेण कृष्ण चतुर्दशी को उपवास करके रात्रिको रमशान में जाकर कानोल्सर्ग धारणकर खड़ा था। उसी दिन शहर की मग सुन्दरी नामक वेश्याने राजश्रेष्टी घनदत्तकी श्रीकीर्तिमती नामकी सेठानीका अपूर्व हार देखकर मन में कहा-इस हारके विना तो जीवन ही व्यर्थ है । फलतः रात्रि को जन्म उसक. पाल मुरवेज वीर, विनियोगको नामसे भी प्रख्यात था, या तो वेश्याने उक्त हारके विना प्रणय करनेका निषेध कर दिया । कामान्ध मृगवेग हार चुराकर लेकर चला तो रक्षकोंने उसका पीछा किया। भागते२ स्मशान में वारिपणके आगे हार पटक कर विद्युतचोर वाजमें छिपगया । रक्षकोंने वारिपेण को चोर सममा और उसी समय उसकी श्रेणिकको खबर की । तत्काल श्रावेशमें आकर श्रेणिकने उसका शिरश्छेद करने की माझा देदी । आशानुसार रखकाने भी जाकर उसपर जितने भी अस्त्र शस्त्र चलाये सभी व्यर्थ होगये। उन्टे बेसन वारिषेण के ध्यान से प्रमुदित नगरदेवनाके प्रसादसे फूल माल होगये । इस बातकी भी खबर जब ऋषिक पर पहुंची तब वह वहां स्वयं आया । और उसने वारिपेण से क्षमा मांगी। इसी समय मृगवेग प्रकट हुआ और उसने अभयदान मांगकर सब वृत्तांत कहा । तदनन्तर श्रेणिक द्वारा घर चलने केलिये पुन: प्राथना करने पर भी वारिपेण धर को न जाकर सूरदेव प्राचार्य के पास दीक्षित होकर तप करने लगे। कुछ दिन बाद वारिपण राजगृहके निकटवती पलास कूट ग्राममें आहार करके शाण्डिल्यायन के घरकं सामने से निकल जो कि श्रेणिक महाराजका अमात्य था । इसकी धर्मपत्नी का नाम पुष्पवती और पुत्रका नाम पुष्पदन्त था । पुष्पदन्त वारिषणका लंगोटिया मित्र था । उसका अभी विवाह हुआ था । कारिपेणको सामने से जाते देखकर पुष्पदन्तने जिसके कि हाथ में अभी विवाहका कंकण बंधा हुआ था, नमस्कार किया । वारिपेण उसका हाथ पकड़े हुए आगे चलने लगे पुष्पदन्त अनेक तरह के संकाच पड़गया। वापिस जाने कैलिये मुझे ये बाझा देदें और हाथ छोड़ दें तो अच्छा हो इसके लिये उसने कई तरहके संकेत भी किये परन्तु वारिपेण ने उसको न छोड़ा । बात करते२ गुरुदेवके पास पहुंचकर वारिपेणने कहा-~~भदन्त ! यह मेरा मित्र है और स्वभात्रसेही भयभीरु एवं विरक्तचित्त है, दीक्षायें आपके पादमूल में पाया है। यह कहकर केशलु'चन आदि करादिया। पुपए ने भी यह गोचकर कि "कभी अवसर पाकर चला जाऊगां अभी तो इनकी बात रखदो।" वारिसका उपरोध स्वीकार करलिया । भोर सायमें मुनि होकर रहनेलगा।
ऊपर के कपन से यह तो स्पष्ट ही है कि पुष्पदन्त वास्तव में या भाषपूर्वक मुनि नही हुआ था। फिर भी वह सरलवुद्धि था और वारिषेण के प्रभावमें रहनेसे संगमें रहकर बाहरके मुनिक समान ही सब क्रियाएं किया करता था । अतएव वह प्रतिक्षण अपनी नवपरिणीता पत्नीका ही जिसका कि नाम मुदती था स्मरण किया करता था । अथिक क्या, सामायिक के समय भी वह उसीका ध्यान किया करता था।
इसीतरह अब बारह वर्ष निकल गये एक दिन प्राचार्य परदेष ने राजगृह नगरमें मानेपर