Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रत्नकरण्डीवकाचार
धर्म सामान्यरूपमें किसी तरहका अविश्वास या उपहास करनेका भाव जागृत न हो सके। जिनेन्द्र भक्त व्यवहारसे इस बातकी शिक्षा मिलती है कि सम्यग्दृष्टिको किस तरहसे धर्म की रक्षाके लिये प्रसङ्ग पडनेपर दूरदर्शिता एवं विवेक से काम लेना चाहिये ।
वारका और अपने मित्रके वास्तविक उद्धारकै लिये किया गया सतत सत्प्रयत्न आदर्श है।
विष्णुकुमार ऋद्विवारी महान मुनि होकर भी सर्माओं और सद्र्धा के रक्षण के लिये वात्सम्यवश पंचम गुणस्थान में आकर श्रृद्धिका सदुपयोग करते हैं। यह त सम्यग्दृष्टियोंके इस कर्तव्यपर प्रकाश डालता है कि वे धर्मानुरागसे आवश्यकता पड़ने पर किसतरह अपने सर्वस्वका भी परित्याग कर दिया करते हैं ।
वज्रकुमारने जैनधर्म की महिमाको कम न होनेदेकेर अपने विद्यातिशयके द्वारा उसके प्रभावको उद्दीप्त कर दिया। यह दृष्टांत इस बातका बोध कराता है कि सम्यग्दृष्टि जीव दूसरे के काबिलेमें जैनधर्म की महत्ताको किस तरह प्रकाशित करनेमें प्रयत्नशील हुआ करता है और इसके लिये दान तप जिनपूजा विद्यातिशय अदिका उपयोग किया करता है।
इस तरह सम्यग्दर्शन के आठ अंगोंके ये आठ उदाहरण हैं । किन्तु इसीतरहके और २ भी उदाहरण आगमके अनुसार विद्वानों को समझलेने चाहिये। क्योंकि बहुलताको सूचित करने के लिये ही ग्रन्थकारने "गता १: " ऐसा बहुवचनका प्रयोग किया । जैसा कि श्री प्रभाचन्द्राचार्यका र अभिमत है ।
आठ अंगोंके विरुद्ध शंका श्रादिक पाठ दोष हैं। उनका भी स्वरूप आगम के अनुसार उदाहरणों द्वारा समझमें शासकता हैं । यथा धरसेन नामका वह मालीका पुत्र जो कि शंकित मनोवृत्तिके कारण अंजन चोर की तरह विद्यासिद्धिसे वंचित रहा। कहा भी है कि-कल्याणाद् वंचितो जातः शंकाशीलः स मालिकः । मंत्र पंचनमस्कारं साधितुं न शशाक यः ॥ २कांचा मस्करीका नाम लिया जा सकता है जो कि गणधर पद प्राप्त करने की इच्छासे भगवान् महावीर के समवसरण में गया किन्तु गौतमके गणथर बन जाने पर विरोधी होकर " श्रज्ञान" का प्रवर्तक हुआ । अथवा श्रीवृषभदेव भगवान् के पहले के भवोंमें हुए जयवर्माका नाम भी लिया जा सकता है जिसनेकि विद्याधरकी विभूतिको देखकर उसको प्राप्त करने केलिये सनिदान तपश्चरण करके महाबलकी पर्याय प्राप्त की थी । अथवा सभी सनिदान तपश्चरण करने वालों को इस में अन्तभूत किया जा सकता है। इसी प्रकार ४ विचिकित्सा करनेवालों में
१-पद्यपि मुद्रित और प्रसिद्ध पाठ रात" । किन्तु हमारे पासके प्राचीन हस्तलिखित गुटका में "गी की जगह गताः ऐसा सुधारात्या हूँ। तथा प्रभाचन्द्रीय टीका से भी ऐसा ही शुद्ध पाठ मालुम होता है।
२-- "गता" इति बहुवचननिर्देशो दृष्टान्तभूतोत्तात्मक बहुत्वापेक्षया ।
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३- जैसे कि सभी अर्धचक्री जो कि सनिदान तपके प्रभावसे ही उसपदको प्राप्त किया करते हैं । ४ - इसकी कंथा सुगन्यदशमी व्रतकी कथा (श्री जैन व्रतकथा समह - देखक, स्व० दीपचन्द्रजी वर्गों, शक, मूलचन्द किसनदासकापडिया सूरत) में देखना चाहिये ।
प्रका