Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चंद्रिका टीका ग्यारड्यो श्रीफ गई या नही परन्तु पैसा न कर मोह एवं अनन्तानुबन्धी तीन राग के वश पच्चीस* वर्ष आयुको कम कर अन्तको प्राप्त हो मेधाभूमि में पहुँच गये। श्रेणिक महाराजके अनन्तानुबन्धी के उदय वश वह भावना नहीं हुई । यही कारण है कि वे प्रथम रत्न प्रभाके मध्यम पटल मही उत्पन्न हुए उनकी किसी तच्च या तान्दिक मोक्ष मार्गके विषय में प्रतीति चलायमान नहीं हुई। यह घटना तो वेदना की असल भावना के साथ साथ अप्रत्याख्यानावरण क्रोध द्वारा होनेवाले रौद्र' ध्यान के परिणाम स्वरूप प्रथया पीडा. चितवन नामक आध्यानवशर यह घटना हुई ऐसा समझना भाहिये ! मालुम होता है कि उन्होंने आत्मघात किया नहीं अपितु उनका प्रात्मघात हो गया। क्यों कि उनका किसीने वध किपा नही और स्वाभाविक रूपमे भी मरण हुआ नही । चायिक सम्यक्त्व के कारण मोह और अनन्तानुवन्धी के उदयसे होनेवाला श्रात्मघात भी संभव नहीं। फलतः कारण कलाप पर विचार करनेसे यही समझमें आता है और उचित प्रतीत होता है कि उन्होंने आत्मघात किया नही किंतु तलवार पर गिर घुम जानसे उनका स्त्रयही पात हो गया। अथवा यह मोह और अनन्तानुवन्धी निमित्तक आत्मघात नहीं था। क्यों कि ऊपर जिन सात भयोंका उल्लेख किया गया है वे यदि सम्यक्त्व विरोधिनी कर्म प्रऋतियोंके उदयवश होने हैं तो ही ये सम्यक्त्व बोधक या थातक हो सकते है और नियमसे मान जा सकते है।
यह बात सुनिश्चित है कि श्रेणिक के सम्यक्त्व में इस घटना से कोई अन्तर नही पडा । उनका सम्यक्त्व तो तदवस्थ ही रहा और उसीका यह परिणाम हुआ कि उनके उतना तीव्र दुर्ध्यान नहीं हो सका जिससे कि वे नीचे की भूमिमें से किसी में उत्पन्न हो जाते । सम्पकत्व की अपस्थिति तद्वस्थ रहनेका ही यह परिणाम हुआ कि ३३ सागर की नरकायु से घटकर ८४ हजार वर्ष प्रमाण रह जाने के बाद पुनः उसमें कुछ भी उत्कर्षण नहीं हुआ या नहीं हो सका। अतएव स्पष्ट है कि उनके जो भी दुर्ध्यान हूमा बह मिथ्यान्य या अनन्तानुबन्धी निमित्तक नहीं अपितु अप्रत्याख्यानावरण निमित्तक ही था। अथवा तत्सहचारी५ नरकायुका यह परिणाम समझना चाहिये जिसके कि उदय का समय आ चुका था। क्यों कि श्रेणिक की भुज्यमान मनुष्य मायुका प्रमाण कुल ८४ वर्प था और उस समय पूर्ण हो रहा था। आगे उदयमें आनेवाली
*-देखो पद्मचरित सर्ग ११६ श्लोक ४८, ४६, ५० १.-"पचत्तु हे सहि रुदझाणि, पाचे सहि तुहं पाणावसाणि" । प्राकृत श्रेणिक चरित्र पृष्ठ ६८ ! २--वितक्त्य सिधारामाम् पपातातितमानसः । भृतिमा (स.) क्षणाधन अणिको निरयंगतः ||४|| भट्टारक शुभचंद्र कृत श्रोणिक चरित्र । पृष्ट ४ा ३-टिप्पणो नं० २ में जो 'पपात' किया है उसका अर्थ गिर एटना होता है। न कि “शिर मार लेना जैसा कि इसके हिन्दी अनुवाद में पं० गजाधरलालजीने लिखा है कि 'इस प्रकार अपने मनमें अतिशय दुखी हो शीघही तलवार की धारपर शिर माग' बिना किसी दुर्घटना के । ५-अप्रत्याख्यानावरण सहचारी। ६. महावीर जिन मेरी आयु फेता है गणधर कहो भाय ॥२२॥ गगथर बोलय सुणि राजाण, वर्ष बाहचरी जिननी आण (आयु) 1.वरस चौरासी थाहग आम (आयु) तिणमें बीता बरस पचास ||शा......... बौरासी बरस पूरण धया, कौमिकराय काटनेगया! ४० च० हिंदी।