Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चंद्रिका टीका taraf लोक
कल इस भरत क्षेत्रमें पाया जाता है। इनमें मोहित न हानसे सम्यग्दर्शन निरतीचार रहा करता और श्रष्टि अंगसे पूर्ण माना जाता है । अन्यदृष्टि प्रशंसा, अन्यदृष्टि संस्तव, और अनायतनसेवा इन अतिचारोंसे भी बचे रहनेपर ही इस अंगकी पूर्णता संभव है, अन्यथा नहीं ।
ध्यान रहे आचार्य यहां पर कापथ और कापथस्थ दोनोंसे ही मोहित न होनेके लिये उपदेश दिया है। अत एव जिस तरह मिथ्यात्व के सम्पूर्ण भेदोंसे और मिथ्या सिद्धान्तों - मतोंके भेदोंसे बचे रहने की आवश्यकता है उसी तरह निष्यः चरणों में भी मोहित न होनेकी आवश्यकता है। साथही मिध्यादृष्टियों मिथ्याज्ञानियों और मिथ्या चरणवान् पाखण्डी तपस्वियोस भी सावधान रहने की आवश्यकता है
ध्यान रहे महापति श्राशावरजीने मिध्यादृष्टि अनायतन की संगतिका निषेध करते हुए त्रिलोक पूज्य जिनमुद्रा को छोडकर मिय्यावेश भारण करनेवाले की तरह उन आर्हती मुद्राधारण करके विचरण करनेवालों की भी संगति का मन वचन कायसे त्याग करने का उपदेश दिया है. जो कि अजितेन्द्रिय हैं, केवल शरीर मात्र से जिनमुद्राके धारक हैं, परन्तु भूतकी तरह धर्मकाम लोगों में प्रवेशकर यद्वा तद्वा चेष्टा करते या कराया करते हैं। अथवा म्लेच्छों की तरह लोक शास्त्र त्रिरुद्ध आचरण किया करते हैं३ । पाखण्डियोंका सम्बन्ध न रखनेका उपदेश लोक४ में भी पाया जाता है।
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मान्यताओंके भेदसे मिथ्यादृष्टि सात प्रकार के हो सकते हैं। क्योंकि सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनों की एकता मोहमार्ग हैं । यह एक मान्यता सत्य और समीचीन हैं । किंतु इसके विरुद्ध इनमें से एक एक को न मानना - सम्यग्दर्शनकी मोक्ष के लिए आवश्यक्ता है, यह बात न मानना, इसी तरह सम्यग्ज्ञान को अनावश्यक अथवा चारित्र को कारण न मानने मे तीन मिथ्या मान्यताएं होतीं हैं। इसी तरह दो दो के न मानने से तीन और तीनों ही के न माननेसे एक, कुल मिलाकर सात मिथ्या मान्यताएं हो सकती हैं । अथवा तीनोंमेंसे एक एककोही कारण माननेसे तीन, दो दो को ही मानने से तीन, एवं तीनोंकोही पृथक पृथक कारण मानने से एक, इस तरह से भी मिध्या मान्यताएं सात प्रकारकी हो सकती हैं।
इन मिध्या मान्यताओं को रखनेवाले जीव सात प्रकारके मिध्यादृष्टि हैं । अतएव उन सातों ही प्रकारके मिध्यादृष्टि जीवों के वचन, व्यवहार वैभव यादिसे अपनी बुद्धि मन या विचारों को मोहित अथवा मलिन नहीं होने देना चाहिये, न वचन द्वारा उनकी प्रशंसा करनी चाहिये और
१- विदेहादिक क्षेत्रों में सदा द्रव्यरूपसं दिगम्बर जैन धर्म ही प्रवत्तमान रहता है।
२- क्योंकि कोई भी समीचीन या मिध्या त्रिक (दर्शन ज्ञान आचरण) अथवा कोई भी धर्म व्यक्तिसे भिन्न अपना अस्तित्व नहीं रखता ।
३ – मुद्रां सांव्यवहारिकी त्रिजगतीबन्यामपोद्यानी वामां केचिदथयो व्यवहरन्स्यन्ये बहिस्तां श्रिताः । लाक भूतयदाविशन्त्य वशिनस्तच्छायया चापरे, म्लेच्छन्तीह तस्त्रिधा परिचमं पु देहमाईस्थज || अन० २०६६ ४- पास्वरितो विकर्मस्थान वैडालब्रतिकान् शठान हेतुकान्वकवृत्तींश्च वामात्रेणापि नार्चयेत्
उद्भुत ।