Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चका रहलां सोप गुण धर्मका पादर जब कि उनकी वृद्धिका कारण है तब वैसा न करना अवश्यही उनके हासका हेतु है । सम्पत्ति अधिकार प्रभुता कलाकौशल आदि भी जगतमें आदरणीय हैं। उचित रूपमें और अपने २ अवसर पर इनका आदर करना भी आवश्यक है। फिर भी महान एवं अंतरंग भात्मिक गुण धर्मशून्य-अविवेकी, अन्यायप्रिय, असदाचारी व्यक्तिके इन विषयोंका आदर
आदि करना वस्तुतः लोकहितकर नही और न उसमें अपनाही हित निहित है । अतएव सम्यकदृष्टि जीप अन्तरदृष्टि होनेके कारण गुण वर्मों का ही आदर करना मुख्य एवं उचित समझता है ! पौर वैसा करके नह मोक्षमार्गका संवर्धन करता है।
शब्दा का सामान्य विशेष अर्थ----
स्वयूथ्य-कोई भी विवक्षित गुणधर्म जितने व्यक्तियों में सदृश रूपसे पाया जाय उसने व्यक्तियोंका गम्ह एक वर्ग कहा जाता है । इसीको जाती समाज या यूथ भी कहते हैं। यूथ में रहनेवाला प्रत्येक व्यक्ति यूथ्य हैं | स्व शब्द का अर्थ आत्मा अथवा आत्मीय है। मतलब यह कि विवक्षित आत्मीय गुण जिन जिन में याये जाय वे सभी व्यक्ति स्वयूथ्य है । ग्रंथकार यहांपर जिन जिन गुणों को श्रेयोमार्ग-धर्म के नामसे बता रहे हैं वे रत्नत्रय सम्यकदर्शनादिक मात्मीय गुण हैं | वे जिसमें पाये जाने हैं उस सम्यकदृष्टि के लिये उन रिवक्षित गुणोंके धारक सभी व्यक्ति स्वयूथ्य हैं । सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान सम्यकचारित्र इनमेसे एक दो या तीनोंके धारण करनेवाले कोई भी व्यक्ति क्यों न हों वे सभी व्यक्ति परस्पर में स्वयूथ्य ही है।
सद्भावसनाथा---सत्-प्रशस्त या समीचीन, भात्र-आशय अथवा परिणाम, इनसे जो युक्त हो-प्रेरित हो उस क्रियाको सद्भावमनाथा समझना चाहिये । यह शब्द प्रतिपतिमा विशेषण है | अपने सधर्मा अथवा धार्मिक वर्गके प्रति जो प्रतिपत्ति--सद्व्यवहार किया जाय वह सद्भाव पूर्वक पवित्र निस्वार्थ धार्मिक भावना से अनरंजित होना चाहिये। जिसतरह कषायसे अनुरंजित योर्गा की प्रवृति कम बंध का कारण है उसीप्रकार धर्मात्माओंके प्रति किया गया कोई भी व्यवहार यदि किसी भी प्रकार की कषायसे अनुरंजित है तो वह भी कर्मबन्धका ही कारण हो सकता है। उस को यथार्थ धर्म अथवा शुद्ध सम्यकदर्शनका वास्तविक अंग नही माना जा सकता । यहाँ कपाय से मतलब बुद्धिपूर्वक कपायको उनेजित अथवा किसी विवक्षित कार्यके सिद्धिके लिए प्रेरित करने से है। अतएन यह वात्सन्यगुण उस अवस्था में ही सम्यकदर्शनका मंग माना जा सकता है जब कि वह किसी भी कषाय का परिणाम न हो। समस्त सद्भावोंका संक्षेप गुणों के प्रति विचिकित्सा के अभाव में हो जाता है। ___ उमर सम्यकदर्शन का निर्विचिकित्सा नामका गुण बताया जा चुका है । उस निषेवरूप गुरु के निमित्तसे सम्यकद्दष्टिकी जो सधर्माकि प्रति प्रवृत्ति होती है उसकाही अन्तरंग कारखा गया वात्सल्य है क्यों कि सम्पन्दष्टि जीव आत्मगुणों में रुचिमान हुआ करता है। वह कर्मनिमिचक शरीरादिके सौन्दर्यासौन्दर्य के निमित्तसे आत्मगुणोंमें उपेधित नहीं हुमा करता। इस तरहकी