Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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मंद्रिका टीका अठारहयो श्लोक मिथ्यात्वादि ४१ कर्म प्रकृतियोंका बन्य नहीं हुआ करता | तथा बन्धनेवाली पाप प्रकृतियों में स्थिति एवं अनुभाग का बन्ध मिध्यादृष्टि के समान तीब्र नहीं हुआ करता । वह स्वभावसे ही इतना विरत रहा करता है कि जिससे उसके मन वचन कायकी इसतरह की प्रकृति ही नहीं हमा करती जिससे कि उक्त ४१ प्रकृतियोंका तथा उनके सिराय भी अन्य पाप कर्मकि स्थिति अनुभागका मिथ्यात्वके उदयसे युक्त जीवके समान पन्ध हुआ करे । प्राशय यह है कि सम्यम्हष्टि के भी पाप कर्म बन्धते हैं परन्तु मिथ्पादृष्टि के समान नहीं । इसी आशय को दृष्टिमें रखकर उसको असंयत एवं प्रबन्ध कहा गया है। न कि इस अभिप्राय से कि वह मिध्यादृष्टिके समान मर्वथा असंयत और सिद्धोंके समान एकान्ततः प्रवन्ध है। ____ऊपर जैसा कि बताया गया है असंया सम्यग्दृष्टि ४१ कर्म प्रकृतियों का जिनसे बन्ध हो ऐसी क्रियाओं में प्रकृति नहीं किया करता । शेष अपने पद के अनुरूप संसार के अथवा गृहस्थाश्रम के सभी कार्य वह किया करता है और उनके अनुसार उसके बन्ध गी हुआ करता है। फिर भी उसकी दृष्टि में अनन्त अविनश्वर अनुपम परमानन्दरूप अपना शुद्ध चैतन्य आजाने के कारण वह मुख्यतया उथरको ही लक्ष्यबद्ध हो जाया करता है। यही कारण है कि उसको संसार शरीर और भोगामें वस्तुतः रुचि नहीं हुआ करती। इस अरुचि के ही कारण वध्यमान कर्मों में स्थिति और अनुभाग का चन्ध भी घट जाया करता है । वह मोक्षमार्ग रूप गुणोंका श्राराधक होने के कारण स्व या पर सघर्माओके दोषों का निर्हरण करके उपगूहन और गुणों का संवर्धन करके उअबृहण, सया गुणों की अस्थिती की अवस्था में उनका संरक्षण, एवं संस्थित श्रास्था में उचित सम्मानादि प्रदान, नत् अनुद्भन गुणों को विधर्माओंमें भी प्रकट करने का प्रयत्न करके वास्तविक हित या कम्याणका प्रकाशक हुआ करता है।
इस तरह यहांपर सम्बग्दर्शन के निःशङ्कित आदि आठ अंगों का स्वरूप बताया गया है। भागममें इनके सिवाय अन्य प्रकारसे भी पाठ अंगों का उल्लेख किया है । यथा--- संवेभो णिवीणिदा गरुहा य उवसमो भची। बच्छावं अणुकंशा गुखा हु सम्मनजुत्तस्म ॥
अथवा--- देवादिध्वनुरागिता भयवपुगिषु नीरागता, दुर्य तेऽनुशयः स्वदुष्कृतकथा सूरैः क्रुधाद्यस्थितिः । पूजाहत्प्रभृतेः सथविपदुच्छेदः चुधाद्यर्दिते, म्वनिष्वाद मनस्कताष्ट चिनुयुः संवेगपूर्वा राम् ।।
अर्थात्-सम्यक्त्वसहित जीवके ये अाठ गुण हैं संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्दा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा ।
मतलब यह है कि सच्चे देव शास्त्र संघ धर्म और उसके फलमें बिना किसी ख्याति लाभ १---पापकर्माकी संख्या १०० या २२ हैं । इनमेंसे अस्थिर उपघात प्रावि साप फर्मों का बन्ध सम्यक्ष
के भी होता है। २-जैसा "संसारशरीरभोगनिर्विएणः ।