Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चंद्रिका टीका अठारहवां लोक
आर्यिका श्रावक श्राविकाओं में प्रमोदभावसे युक्त नहीं होता उनके गुणों का अनुरागी होकर उनके अन्तर बहिरङ्ग कष्टोंको— मानसिक शारीरिक आधिव्याधियों को दूर करने में निष्कट रूप से यथायोग्य और यथाशक्य प्रयत्नशील नहीं होता वह जिन धर्मका अनुरागी हैं, अनुयायी हैं, श्रद्धालु है, रोचिष्णु हैं, प्रतीति रखनेवाला प्रशमादिगुणों से युक्त सम्यग्दृष्टि है यह किसतरह कहा जा सकता है। क्योंकि वास्तव में सम्यग्दृष्टि जीव उपर्युक्त गुण घरों और उनसे विभूषित सुधर्मा व्यक्तियोंमें इतनी अधिक भक्तिसे युक्त हुआ करता है कि मनसे भी यह कभी भी उनके ऊपर आये हुए कष्ट को सहन नहीं कर सकता तो फिर अपना सर्वस्व अर्पण करके भी उनके कष्टों को दूर करने में क्यों चूकेगा ? कभी नहीं चूक सकता । ऐसा अवसर पर यह उनके प्रति उपेक्षित नहीं हो सकता। वह तो ऐसे प्रसंग पर विष्णुकुमार निकी तरह सवर्मा गुणवानों के प्रति अपने महान् से महान् साधनोंका सर्वस्व भी अर्पण कर दिया करता है । वह अपने तन मन धन त विद्या विज्ञान और कलाकौशल अधिकार सम्पत्ति आदिको पूर्णरूपसे लगा कर उनका संरक्षण किया करता है ।
इस तरहकी बाह्य प्रवृत्ति अन्तरंग सम्यग्दर्शनका निदर्शन' है
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ऊपर लिखे अनुसार सम्यग्दर्शन के चार शंका कांक्षा विचिकित्सा और अदृष्टि प्रशंसासंस्तव के विरोधी होनेके कारण निषेधरूप चार गुण धर्मोका वर्णन और तदनन्तर सम्यग्दर्शन के प्रकट होजानेपर सम्यक्त्वसहित जीवकी सधर्मा और विर्मा के प्रति किस चरहकी प्रवृत्ति हुआ करती है उसको बतानेवाले प्रवृत्ति - विधिरूप चार गुणोंमें से आदि के सर्माओं के साथ होनेवाली प्रवृत्ति से सम्बन्धित तीन गुणों का वर्णन समाप्त हुआ। जिसमें उपगूहन या उपहण के द्वारा सधर्मा के दोष और गुणों के विषय में स्थितीकरण के द्वारा यदि कोई धर्मा धर्म के विषय में शिथिल है अथवा शिथिल होने के सम्मुख है यद्वा धर्ममें स्थित नहीं रहा है - इस तरहसे उसकी कालिक अस्थितिको दूर करनेके सम्बन्धमें, और वात्सल्य गुणके द्वारा यदि कोई सधर्मा किसी भी अन्तरंग या बहिरंग कारणसे आधिव्याधिग्रस्त है, खिन या विपन है, परीषह या उपसर्गसे पीडित है, आधिदैविक या आविभांतिक कष्टसे संक्लिष्ट हैं, तो उस समय उसके प्रति सम्यग्दृष्टिका कैसा व्यवहार हुआ करता है इस बातको क्रमसे बताया गया है अव मुख्यतया विधर्माओं के प्रति सम्यग्दृष्टिका व्यवहार कैसा हुआ करता है या होना चाहिये इस को स्पष्ट करनेवाले विधिका चौथे प्रभावना अंगका वर्णन करते हैं?
अज्ञानतिमिरव्याप्तिमषा कृत्य यथायथम् । जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात्प्रभावना ॥१८॥
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१-तपसः प्रस्यत्रस्यन्तं यो न रक्षति संगतम् । नृतं म दर्शनाद् बाह्यः समयस्थिनिज्ञघनात् ॥ यश श्री सोमदेव सुरीने अपने उपासकाध्ययनमें प्रभावनाको सातवें और वात्सत्यको मारने नम्बरपर बवाना है। इस तरह वर्णन क्रममें सम्टदं पाया जाता है।