Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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निकरण्ड प्रावकाचार प्रभावना के भी स्व और पर दोनोंही विषय मान गये हैं। अपनेही भीतर रत्नत्रयको प्रकाशित करना स्वपकी प्रभावना और दूसरे की आत्मामें उनके प्रकाशित करने को पर की प्रभावना कहा है । ध्यान रहे सम्यग्दर्शन के इन आठ अंगामें से निषेधरूप पहले चार अंग अपनीही अपेक्षा मुख्यतया रखते हैं । और विधिरूपसे जिनमें कर्तव्यका बोध कराया गया है ऐसे चारोंही उपगूहनादि अंगों में मुक्यता परकी है । यद्यपि उनका पालन स्वयं भी हुआ करता है । इन विधिरूप चार अंगों में से तीन का सम्बन्ध अन्य मधाओंसे और इस प्रभावना का सम्बन्ध मुख्यतया विधाओं से है।
विधर्माओं में पाये जाने वाला अबान तीन तरहका हो सकता हैं—संशय विपर्यय और अनध्यवसाय । इनमें से अन्तिम प्रायः अतीत और पहले दोनो गृहीत हुआ करते हैं यही कारण है कि अगृहीत अथवा अनध्यवसायमा अज्ञानको तिमिर-चोर अन्धकारकी उपमा दी है । जैसा कि अन्य ग्रन्थकारोंने भी किया है। 'केपाञ्चिदन्यतमसःयतेऽगृहीतं ग्रहायतेऽन्येषाम् । मिथ्यात्वमिह गृहीतं शल्यति सांशयिकभपरपाम् ।।
अथया--हितमेव न वेत्ति कश्चन भजतेन्यः खलु तत्र संशयम् ।
शिणीचः गर. जगत् विमिरज्ञानामाभिराहतम् ।। इम अज्ञान अंधकार को दूर करने के लिए अनेक उपाय बताये३ है। उनमेंसे यहां ग्रंथकार ने किसीका नामोल्लेख न करके 'यथायथम्' शब्दका ही उल्लेख करदिया है अतएव कब कहां किस उपायसे उसको दूर किया जाय तो उसका उत्तर यही है कि जब जहां जी भी उचित प्रतीत हो और जिससे वह दर हो सके। जैसा कि पं० आशाधर जीने भी कहा है कि 'यो यथैवानुवल्यः स्थाच तथैवानुवर्तयेत् । श्रज्ञान जब कि अन्धकार के समान है तब उसकं विरोधी जिनशा. सन के माहात्म्यको प्रकाश तुम्ष कहना उचित ही हैं। निबिड अन्धकारमें कहा जाता है कि अपना हाथ भी दिखाई नहीं देता उसी प्रकार अज्ञानका माहात्म्य भी वही समझना चाहिये जहापर कि अपनी आत्माका वास्तविक स्वरूप दिखाई नही पडे । इसीलिए उसको बाहिष्टि कहा जाता है। जिसतरह उन्लू को अन्धकार में बाहरकी सभी चीजें दिखाई पड़ती है परन्तु सूर्यका प्रकाश देखने में और उस प्रकाश में अन्य वस्तुओंको देखने में भी वह असमर्थ है । उसी प्रकार बहिष्टि स्थूल जगत की देख सकता है परन्तु आत्माके प्रकाश को नहीं देख सकता । वह आत्माके सत्य प्रकाशको देखनमें उसी प्रकार असमर्थ हो जाया करता हे जसे कि समवशरण में प्रभव्य पुरुष भव्पकूट के देखने में।
ऊपर सम्यग्दर्शन के निषेयरूप चार गुणोंमें अन्तिम अमृदृष्टि अंग का वर्णन किया जाचुका है यहां विधिरूप चारगुणों में अंतिम प्रभावना का स्वरूप बताया गया है। इन
-सागारधामृत श्र० १ श्लोक । २आचायं घोरनन्दा चन्द्रप्रभ चारन । ३-इसका उल्लेख पहले हो चुका है।५--धर्मामृत । ५-~भव्यकूताख्यया स्तूपा मास्वत्कूटास्ततोपर । यानमव्या च पश्यंति प्रभावान्यातक्षणाः।। हरिवंश ५-१०४।