Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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-Pray
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सलकरभावकाचार हैं चैतन्य अथवा ज्ञान शक्तिपर इसके प्रभावका परिणाम यह होता है कि आत्मा या वस्तुमात्रके तथाभूत स्वसपके विषय में वह जीव संबंधा नि:शंक नहीं हो पाता। आत्माकं वास्तविक सरूप के विषयमें उसको संशय अथवा विपर्यास यद्रा अनध्यवसाय बना ही रहता है। किंतु मिथ्यान का उदय न रहनेपर उस विषयमें उसकी प्रतीति दृढ हो जाती है। दृष्टिमें सम्यकतालके या जाने पर उसकी प्रतीतिका स्वरूप ठीक वैसा ही हो जाता है जैसा कि कारिका नंबर ११ में बताया गया है । इसको आस्तिक्य कहते हैं फलतः निःशंकित अंगके साथ आस्तिक्यका जो सम्बन्ध है वह स्पष्ट है। ____ अनन्तानुबन्धी चतुष्क दो भागोंमें विभक्त है एक राग और दूसरा द्वेष ! सम्यग्दृष्टिको अनन्तानुबन्धी सगके न रहनेमे मंगारके किसी भी विषयकी आकांक्षा नहीं रहती फलत: नि:कांक्ष अंग स्वयं बन जाता है। जबतक सम्यग्दर्शन नहीं होता अनन्तानुबन्धी रागके उदयके कारण यह जीवात्मा बहिष्टि रहा करता है और संसारके सभी प्रिय लगनेवाले विषयों में कांधावान् ही बना रहता है । उस रागके हट जानेपर वह निःकांश होजाता है फलतः यह स्पष्ट है कि सम्पग्दर्शन के निकांचअंगके साथ प्रशम भावका अजहत सम्बन्ध हैं । अनन्तानुबन्धीका दूसरा भाग है द्वेष । इसका जबतक उदय रहता है मोक्षमाग उसके विषय अथवा पायतनोंमें जीवको अरुचि अथवा ग्लानिर रहा करती है ! उस कषायके नष्ट हो जानेसे वह नहीं होती। वह अपने शुद्ध प्रात्मस्वरूपका रुचिमान हो जानेसे बाह्य शरीरादिकसे प्रीतिको दुःखरूप संसारमें भ्रमणका कारण समझकर उनसे भव मीन रहता है । फनतः उसका सम्पादर्शन निर्विचिकित्म और संवेगभाव से युक्त रहा करता है । तथा उन सधाओंके रागादिसे पीडित शरीरको देखकर परम अनुकम्पासे युक्त रहा करता है। ___ दर्शनमोह और अनन्तानुषन्धीकपायके नष्ट होजानेपर ज्ञान सम्यग्व्यपदेशको प्राप्त होजाता है। प्रमामभूत सम्यग्ज्ञानका फल आचार्योंने तीन प्रकारका बताया है ---हान, उपादान और उपेक्षा
हेय सच्चोंमें उसकी प्रवृति नहीं हुआ करती।
सम्यग्दर्शनके विरोधी कापथ, कापथस्थ , कुतत्व आदिकमें यह मन वचन कायस भी संपर्क नहीं करता जैसाकि कारिका नं. १४ में अमृदृष्टिताका स्वरूप बताया जा चुका है। मोहके उदयसे होनेवाली मूळ या मूढता ही सबसे बड़ा चैतन्यका बात है। फलतः इसके विरुद्ध चैतन्य का अथवा जीपके रष्टिकोणका अमूह चनजाना ही परम करुणाभाव है। जिसके कि होजानेपर वह स्व और परका परम हितरूप अनुग्रह करने में समर्थ हो जाया करता है । वह स्वयं तो भास्महितका पात करनेवाले कापथ आदिमें त्रियोगको प्रवृत्त नहीं ही होनेदेता परन्तु जो उसमें प्रवर्स१--राग उदे भोगभाव लागत सुहाउनेसे, विना राग ऐसे लागे जैसे नाग कारे हैं। इत्यादि -अमजनमनाचामो नग्नत्वं स्थितिभोजिता । मिथ्याहगो वदन्त्येतन्मुनर्दोषचतुष्टयग इत्यादिशमिश पानोपाधामोपेझारच फलम् । परीक्षा मुख।