Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रस्नकायबांधकाचार
मोक्षमार्गके साथक नपस्वियोंके अन्तरंग गुणोंकी तरफ दृष्टि न रखकर याह्य शरीरकी मलिनता आदिको देखकर उनकी तरफ ग्लानिका भाव होना जिस तरह सम्मादर्शनका दोष है उसी प्रकार किंतु उसके विपरीत चाह्य विषयोंकी तरफ दृष्टि न देकर उनके गुणोंका आदर सत्कार आदि करना सम्पग्दर्शनका गुण है यह बात इस कारिकाके द्वारा बताई गई है।
इस गुणके अथवा अन्य गुणोंके विपयभृत सधर्मापासे प्रयोजन मुनिका ही नही लेना चाहिये । सम्पादृष्टिके सभी उपगृहनादि गुणोंके शिक्षा सम्पूर्ण सम्यग्दृष्टिमात्र है । फिर भी उन सबमें मुनिका स्थान उत्कृष्ट है। अतएव उचित यही है कि अन्यों की अपेक्षा मुमुचु साधुनों के प्रति उपगूहन स्थितीकरण और वान्सल्यभावका सबसे अधिक और प्रथम उपयोग किया जाय। जिस प्रकार साता चेदनीय कर्मबन्धके कारणों में भृत और व्रती दोनोपर अनुकम्पाका भाव भी एक कारण है। फिर भी भूतोंकीर अपेक्षा व्रतीपर की जानेवाली अनुकम्पा प्रधान है--वह प्रथम आदरणीय है । इसी प्रकार वात्मत्यगुगाके विलयभूत सधर्मायोंके विपयमें समझना चाहिये। अवतसम्यग्दृष्टिसे लेकर मुनितक सामान्यतया सभी सधर्मा हैं । फिर भी उनमें मुनिका स्थान सर्वोसम है। देशवतीका मध्यम और अन्तसम्पन्द्रन्टिका स्थान जघन्य हा जा सकता है।
यद्यपि सधर्माओंका उच्चावचत्व अन्य २ गुणों के कारण भी माना जा सकता है फिरभी यह बात दृष्टि में रखने योग्य है कि उन्ही गुणों से युक्त यदि अवनी, देशवती और महानती हो तो उनका स्थान क्रमसे जवन्य मध्यम और उत्कृष्ट ही रहेगा । अतएव वात्सल्य के विषय में मुनि को प्रधान मानना उचित है | आचार्यने यथायोग्य शब्दका प्रयोग करके दूसरे भी सभी मधमाभोंका संग्रह भी किया ही है। ___ इस कारिका के द्वारा यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि जो सम्यग्दृष्टि हैं वह सम्यग्दर्शबादि सभी मोवमार्गरूप गुणधर्मों उनके अंशों या अंशांशोंका आदर करना प्रात्मकल्याणका अंश समझकर अपना प्रथम कर्तव्य समझता है । अतएव जिसकी प्रवृत्ति और मनोवृत्तिमें यह भाव दिखाई पडे, समझना चाहिये कि उसका सम्यग्दर्शन अवश्यही वात्सल्य गुणसे युक्त हैं। धर्म तथा थर्मी में कथंचित् अभेद है। क्योंकि इनमेंसे कोई भी एक दूसरे को छोडकर नहीं पाया जाता में रहता है; न रह सकता है । अतएव धर्मका आदर आदि करनेवाला धर्माका
आदरादि करता है और जो धर्मीका आदर करता है वह अवश्यही उस धर्मको अपेक्षासे वैसा करनेके कारण धर्मका ही भादर करता है । धर्मकी अपेक्षा छोड कर यदि किसी व्यक्ति का कोई भादर करता है तो अवश्य ही बह अविवेकी वहिष्टि है।
१-भूतकृत्पनुकम्पादानस रागसंयमादियोगः शांतिः शौचमिति सद्वंद्यस्य ।। त० सू०६-ना, २मायुनाम कर्मोदयवशाल भवमा भूतानि ||....."सर्वे प्राणिन इत्यर्थ ।। रा० का०-६-१२-१ ३-प्रतिग्रहणमनर्थकमिति चेन्न प्राधान्यख्यापनार्थत्वात् ....."भूतेषु यानुकम्पा तस्याः । प्रनिधनुकम्पा प्रधानमूतेत्ययमर्यः ख्याप्यते ॥ २० वा ६-१२-१३ ।।