Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रस्कारडभावकार
प्रायः मुख्यतया सभ्यग्दर्शनादिक से चलायमान होने के दो कारण हैं। एक तो भागमज्ञान का अभाव या कमी, दूसरा संहननका अभाव। इन दोनों त्रुटियाँका प्रभाव अपने ऊपर भी पड़ सकता । या तो आगमका स्वरूप या उसका रहस्य न मालुम होनेस जीव उन्मार्गमं जा सकता है अथवा बल पराक्रमकी कमी के कारण परिषद् एवं उपसर्ग के आनेपर उसे सहन न कर सकने के कारण व्रतादिक से चलायमान हो सकता है। ऐसी अवस्था में सम्यग्दृष्टि विवेकी का कर्तव्य है कि वह जिसतरह भी शक्य हो अपनेको तथा दूसरोंको भी मार्च में रखनेका करे।
इस अवसर पर यह बात भी ध्यानमें रखनेके योग्य है कि स्थितीकरणका प्रयोजन इतना ही नहीं है कि जब कोई गिरता दीखे या गिरजाय तभी उसका स्थितीकरण किया जाय, अन्य समय में इस श्रंगका कोई उपयोग ही नहीं है । वास्तव में सम्यग्दर्शन का जब तक सद्भाव हैं तब तक स्वभावतः उसके अंग भी रहेंगे ही, और रहते ही हैं। हां, प्रसंग आनेपर उन अंगों में से जब जो विवक्षित आवश्यक हो ऐसा कोई भी अंग अपना विशेषतया कार्य प्रकट किया करता है । किन्तु सामान्य अवस्था में वह अंग विद्यमान रहकर कुछ न कुछ साधारण कार्य किया ही करता है। क्योंकि गणवर्धन- गणपोषण- गणक्षण च्यादि भी स्थितीकरण के ही प्रकार हैं। सम्यग्दृष्टि जीव इन कार्यों की तरफ सदा ही ध्यान रखता है। नवीन व्यक्तियोंको धर्म में दीक्षित करना गणवर्धन है। उनमें आवश्यक गुणों का बढाना गणपोषण तथा उनकी अहित या हानि से बन्दाना गयारणय है ! नवदीक्षित व्यक्ति अपने व्रत चारित्र में स्थिर रहसकेगा या नहीं हम तरहका विचार करनेपर संभव है कि उसका निर्वाह कदाचित सन्देहास्पद भी हो। फिर भी बुद्धिमान व्यक्तिका कर्तव्य है कि वह उस कार्य को अवश्य करें। क्योंकि कदाचित् वह निर्वाह्न न भी कर सके तो भी नन्वतः उसमें उसकी कुछ हानि नहीं है और इसके विपरीत यदि वह पालन कर सका तो लाभ अवश्य है। खास कर उस व्यक्तिका तो परम हित है। हां, नवीन व्यक्तिको दीक्षित करदेने या करादेने मात्र मे ही सम्यष्टि का कर्तव्य समाप्त नहीं हो जाता । उस व्यक्ति के गुखों का पोषण-संवर्धन आदि करना और उसकी तरफ दृष्टि रखना, तथा योग्यतानुसार उसका विनियोग आदि करना भी कर्तव्य है । क्योंकि ऐसा करनेसे एक व्यक्तिका ही नहीं अपितु सम्पूर्ण समाज तथा संघका भी हित है । कलनः स्थितीकरण अंगके धारक सम्यग्ष्टि को सदा ही इस बात की तरफ दृष्टि रखनी चाहिये कि सितरह से गणकी बुद्धि हो, और गणस्थित धर्मात्माओं के गुणांका पोषण हो तथा उन्मार्ग की तरफ जाने से उनकी किसतरह रक्षा हो ।
इस तरह की प्रवृत्ति करनेवालोंके समक्ष यह स्पष्ट करदेना भी उचित होगा कि सम्यग्दृष्टि लक्ष्य यह बात भी रहनी चाहिये कि किसी भी छोटे मोटे एक दोपके कारण उस व्यक्तिका सर्वथा परित्याग कर देना था उसकी तरफ उपेक्षा करदेना साधारणतया हितावह नहीं हो सकता | क्योंकि समाज में सभी तरह की योग्यतात्राले व्यक्तियोंकी श्यावश्यकता है। जिस पक्षा निविदादगणवर्धनम्। एकदोष त्याच्या आप्तवः कर्ष नरः ॥ यतः समयका नानापंचजनाश्रयः । अतः सम्बोध्य यो यत्र योग्यस्तंभ योजयेत् । यशस्तिलफ
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