Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चंद्रिका टीका मोल क तक करीब बारा वर्ष तक उसपर नियंत्रण रखकर और अन्तमें अपनी रानियों और उसकी स्त्री के स्वरूप के साथ २ संसार की निःसारिता का प्रत्यय करने में मुयुक्तिका प्रयोग किया था । दूसरा विशेषम्य प्राज्ञ है । प्रत्येक विषय की उत्कृष्ट बौद्धिक एवं आगम ज्ञान की योग्यता के बिना भी स्थितिकरण नहीं किया जा सकता है !
क्योंकि डिमने अन्तरंग कारण प्रायः दृष्टि के अगोचर भी रहा करते हैं । और देखा यह जाता है कि मनुष्य अपने मोह क्षोभ और अज्ञानरूप भावको प्रायः प्रकट नहीं करता न प्रकट होने देना चाहता है । यह माया प्रपञ्च बड़ा प्रबल है । यही कारण है कि शुद्ध प्रायश्चित्तके द्वारा होने वाली शुद्धि प्रायः दुर्लभ ही हैं। ऐसी अवस्था में मङ्गज्ञोत्तमशरणभूत योग्यतासम्पन्न ९ गुरु ही उस जीवकी अन्तरंग में वास्तविक शुद्धि करके कल्याण के पथमें अग्रसर कर सकते हैं । प्राज्ञ शब्द से उसी योग्यता को यहां आचार्यने सूचित कर दिया है जिसके कि द्वारा डिगते हुए की सदोष अथवा निम्नगा मनोवृचिका दमन करा दिया जाता है अथवा भीतर ही भीतर पकाकर निर्मूल एवं समाप्त कर दिया जाता है। हितेषी सम्यग्दृष्टि को कभी २ इसके लिये कठोर प्रयोग भी करना पड़ता है । जिस तरह अपने किसी बन्धुको वातव्याधिवश उम्र बन जाने पर उसे बांधकर भी रखना पडता है। अथवा किसी के लिये अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष कठोर शब्दों का प्रयोग भी करना पडता है । एवं विरुद्ध उग्ररूप भी दिखाना पड़ता या वैसा व्यवहार करना पड़ता 1 उसी तरह सम्यग्दृष्टि को भी धर्म से डिगते हुए के प्रति योग्यतानुसार उसके हिसके लिये अनेक ऐसे उपाय भी करनेपढते हैं जो बाहर से कठोरताकी परिभाषा में परिगणित किये जा सकते हैं। परन्तु जो तस्वतः हितरूप या हितकर ही हुआ करते हैं। इसकेलिये अवश्य ही आगनज्ञान अनुभव और प्रष्ट बौद्धिक योग्यता कुशलता की आवश्यकता है । अत एव डिमते हुए को पुनः सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र में स्थिर कर देने के लिये जिसतरह धर्मवात्सल्य की आवश्यकता है उसी तरह आइताकी भी आवश्यकता है। यही कारण है कि आचार्यने स्थितीकरण के लिये सम्यग्दृष्टि में इन दो गुखों तथा योग्यताओं का रहना उचित एवं आवश्यक समझ कर प्रकृत कारिकामें स्पष्ट उल्लेख किया है।
उपगूहन स्थितीकरण वात्सल्य और प्रभावना इन चारों ही अंगों का पालन स्व और पर दोनोंमें ही हुआ करता है। अत एव जिसतरह दर्शन और चारित्रसे डिगने हुए दूसरे धर्मबन्धु की सम्यग्दृष्टि जीव संभालता है, गिरने नहीं देता या गिरबुक्का हो तो पुनः उसी पदमें स्थापित किया करता है । उसीतरह वह अपने को भी संभालता है। गिरने का प्रसंग धानेपर सावधान हो जाता है और कदाचित् गिर भी जाय तो उसके बाद ही पुनः उसी पदमें अपने को स्थापित करनेका प्रयत्न क्रिया करता है। और यह ठीक भी है; क्योंकि "स्वयं पनन्तो हि न परेषामुद्धारकाः " जो स्वयं को ही नहीं संभाल सकते में दूसरों का क्या उद्धार करेंगे ?
१- श्रकम्पिय मधु माणिव जं दिट्ट बादरं च सुमं च । घरमा ग्लयं बहुजण अव्त्ररा तस्तेषी । इन दोषो से रहित प्रायश्चित्त शुद्ध होता है। २ - देखो आचार्या के गुण उत्पीलकत्वादि ।