Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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तात्पर्य---यह कि यदि कोई व्यक्ति रत्नत्रयरूप धर्मसे डिगता हुआ मालूम हो तो विचक्षण सम्पदृष्टि धर्मान्माओं का कर्तव्य है कि वे उसको चलायमान होनेसे बचाने जो जिस विषय से विचलित हो रहा है उसको पुन: उसी विषयमें दृढ़ और स्थिर कर दें।
दर्शन शब्द यहाँ उपलक्षण है अतएव उससे सम्यग्ज्ञान का भी अहस करलेना चाहिये । डिगने के या अपने पदमें-सुम्यग्दर्शन-सम्यज्ञान-सम्यकचारित्रमसे किसी भी स्थित न रहने के अनेक कारण हैं। अंतरंग कारण क्रमसे मोह अज्ञान और कपाय है। तथा वाम कारण द्रव्य क्षेत्र काल भाव के अनुसार अनेक प्रकारकी विरुद्ध परिस्थितियां हैं इनमेंसे जहां जैसा जो कुछ भी डिगने का विरुद्ध कारण उपस्थित हो या दिखाई पड़े तो वहां उसी को दूरकरके पुनः उसको उस धर्म में दृढ़ करदे यह सम्यकदृष्टि का गुण तथा कार्य है । लोक में यह कहावत प्रसिद्ध है कि 'गजानां पंकमग्नानां गजा एव धुरंधराः १ | हाथी यदि कीचडमें फस जाय तो उसको बाहर निकालने में हाथी ही समर्थ है-यही इस कार्यको कर सकता है। इसी तरह धर्म से डिगते हुएको धर्मात्मा ही बचा सकता है । परन्तु किस तरह का धर्मात्मा उसे बचाने में समर्थ हो सकता है इस चावको बताने के लिए आचायने यहां दो विशेषण दिये हैं।
धर्मवत्सल और प्राज्ञ | बच्चे में जिस तरह गौ या माता की प्रीति है उसी तरह जो धर्ममें प्रीति रखनेवाला है वहीं वास्तवमै इस कार्य को कर सकता है । वही करता है वह अवश्य ही करता है। स्वार्थ आशा भय आदि के वशीभूत हुआ व्यक्ति उस कार्य को नहीं कर सकता ! ऊपरकी कारिकाके व्याख्यान में बताया जा चुका है कि उपगृहन अंगका पालन करने के लिए निःशंक गुणकी आवश्यकता है, उसी तरह यहांपर भी यह बात समझ लेनी चाहिये कि स्थितीकरण के लिए निःकांक्ष गुरगकी भी उतनी ही आवश्यकता है। जो स्वयं विशुद्ध नि:कांच धर्माभिरुची है वही दूसरे को भी धर्माभिरुचि बना सकता है तथा धर्मसे डिगते हूए को वास्तच में अडिग कर सकता है। ____ ऊपर यह बात भी कही जा चुकी है कि डिगनेसे मतलव तमानका ही नहीं लेना चाहिये किंतु तीनों कालका ही ग्रहण करना योग्य है |
जो कुछ समय पूर्व डिग चुका है । जिसको डिगे हुए कुछ समय बीत चुका है अथवा जिसका धालम्वभाव अपरिपक्व बुद्धि परप्रत्ययनेयता शारीरिक मानसिक कातरता कोमलता एवं समय साकोव परिणति तथा कुसंगति आदिको देखते हुए मालुम होता है कि आगे चलकर यह धर्म में अपनी स्थिति को स्थिर न रख सकेगा तो उसके प्रति भी वैसा व्यवहार करना चाहिये जिससे कि वह धर्म में स्थित बना रहे और यह व्यवहार भी तबतक करना चाहिये जबतक कि यह विश्वास
न हो जाय कि अब यह कभी भी डिमनेवाला नहीं है । जैसा कि वारिपेण ने पुष्पडाल के प्रति ___ उसकी मावलिङ्गता के साथ २ अब कभी भी न डिगनेवाली धर्म में स्थिति का विश्वास न होने
हितापशाद।
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