Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चंद्रिका टीका चौदहवां लोक विद्वान लोग भले प्रकार समझ सकते हैं। विचार करनेपर मालुम हो सकता है कि आस्तिक्य का संबन्ध निःशंकित अंग है । निःशंकित अंग के समान ही चास्तिक्य से भी देवादि अथवा हेयोपदेय रूप स्वपर तस्व के सम्बन्ध में दृढताही अपेक्षित है। वह देवके स्वरूप की तरह उनके वचन में भी शंकित - चलितप्रतीति नहीं हुआ करता। इसीतरह संवेग गुणके विषयमें समझना चाहिये । सम्यग्दृष्टि कर्म और कर्मफलको नही चाहता । संसार और उसके कारणोंसे भयभीत रहने को ही संवेगर कहते हैं। संसार और उसके कारण कमफल और कर्मसे भिन्न नहीं है फलतः निःकांक्षित अंगके साथ संवेग गुणका सम्बन्ध स्पष्ट है । परानुग्रह बुद्धिको अनुकम्पा या दया कहते हैं । सम्यग्दृष्टि जीव नियमसे अनुकम्पादान हुआ करते हैं। प्रत्युत दूसरे जीवोंकी अपेक्षा उनकी अनुकम्पा विशिष्ट होनेके सिवाय विवेकपूर्ण भी हुआ करती है। सम्यग्दृष्टि जीव से युक्त दोनेके कारण रक्तत्रय मूर्ति साधुओं पर बास शरीरादिकी मलिनता आदिके कारण जुगुप्सा नहीं किया करता । ग्लानि, जुगुप्सा विचिकित्सा आदि भाव, द्वेष अस्था या उपेचाके ही प्रकार हैं। और जब कि मोक्षमार्गके पथिक रत्नत्रयमूर्ति साधक औरों की अपेक्षा विशेषतः अनुकम्प्य है तब स्पष्ट है कि जो निर्विचिकित्सा अगसे युक्त हैं, वह अनुकम्पादान भी अवश्य है । अतएव निर्विचिकित्सा और अनुकम्पा दोनों ही गुण परस्पर सम्बद्ध हैं यह स्पष्ट हो जाता है । कापथ और कापस्थों में मोहित न होना एवं उनमें राग न करना ही प्रभू दृष्टि अंग है। प्रशमगुण भी रागादिके उद्रिक्त न होनेसे माना है। अतएव सिद्ध है कि जो अमूह दष्टि है वह प्रशमगुणसे भी युक्त अवश्य है।
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निर्विचिकित्सित
इस कथनसे निशंकितादि गुणोंका आस्तिक्यादि से जो अविनाभाव संबन्ध हैं उससे उनका जो गुणपना है वह ध्यान में श्रासकता है। फिर भी यह बात लक्ष्यमें रहनी चाहिये कि प्रशम संवेग अनुकम्पा में जो कषाय का अभाव दिखाई पडता या रहा करता या पाया जाता है वह स्थान के अनुसार ही संभव है। चतुर्थगुणस्थानवती के अनन्तानुबन्धी कषायका ही अनुद्रेक हो सकता है। पांचवे गुणस्थान वाले के अप्रत्याख्यानावरण का, छठे सातवे यादि में प्रत्याख्यानावरण का तथा श्रागे यथायोग्य संज्वलन का अनुद्रक पाया जा सकता है। अतएव उसको श्रागमके अनुसार यथायोग्य घटित कर लेना चाहिये ।
इस प्रकार दोपों या अतिचारोंके निईरण की अपेक्षा चार तरह से तथा चार विषयोंमें प्रवृति होने के कारण उत्पन्न हो सकने वाली चार प्रकार के मलिनताओं के प्रभाव के निमित्तसे सम्यक दर्शन के जो चार अंग होते हैं उनका स्वरूप बताकर अब गुरुवृद्धि अपेक्षा विधिरूपसे कहेजाने वाले चार अंगोंका स्वरूप आचार्य क्रमसे पवाने का प्रारम्भ करते हुए सबसे पहले उपगूहनका स्वरूप बताते हैं।--
१--यथा “इदमेवेदमेव" इत्यादि । इससे आस्तिक्यगुण प्रकट होता है। क्योंकि "श्रीषादयोऽर्था यथात्वं फँसीसि मसिरास्तिक्यम् || २--संसाराद् भोक्ता सँबेगः ॥ ३- रागादीनामनुब्रेकः प्रशमः । स० सि०