Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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पद्रिका टीका बौदहवां लीक सूत्रकार आदि आचार्योंने नहीं बताया। इसका क्या कारण है ? क्या यह पूर्वापरविरुद्ध
कपन नहीं है।
उत्तर—यह कथन पूर्वापर विरुद्ध नहीं है । जो कथन सापेव नहीं है, जिसमें अन्य भागम से पाथा आती है, जो युक्तियुक्त नहीं है, ऐसा ही कथन विरुद्ध माना जाता है। जैनागम अनेखान्तरूप तत्त्वका स्याद्वाद पद्धतिसे वर्णन करता है । अत एव जैनाचार्योक जितने भी वाक्य है या जो भी कथन हैं वे सर सापेक्ष हैं और इसीलिये विरुद्ध नहीं हैं। उनमें पूर्वापर विरोधकी शंका करना ठीक नहीं । मन्दबुद्धि के कारण अथवा आनायका ज्ञान न रहनेक कारण दो कथनों में यदि कदाचित कहीं पर भी किसी भी विषयके प्रतिपादन में विरोध मालुम पड़ता है तो वह वास्तविक विरोध नहीं है यह मानकर उसको विरोधाभास ही समझना चाहिये। ऐसे अवसरपर दोनों ही कथनोंको प्रमाणही मानना उचित है । और इसीलिये उन दोनों को ही जिनेन्द्र भगवान्का कहा हुमा मानना और उनका उसीप्रकार श्रद्धान करना उचित है ।
प्रकृत दोनों कथन भी सापेक्ष होने से विरुद्ध नहीं किन्तु दोनों ही प्रमाण है। क्योंकि यहांपर सामान्य विशेष की अपेक्षासे दोनों ही कथन श्रय एवं उपादेय हैं। अनायतन सेवा में शरीर के सम्बन्धकी मुख्यता है। फिर चाहे वह प्रशंसनीय समझ कर हो या न हो । मनसे प्रशंशा और वचन से संस्तव करने में प्रशंसनीय न समझनेका कारण ही नहीं है | शरीर से जहां अनायतनों की संवामें सम्मिलित हुश्रा जाता है वहां दोनों ही भाव संभव हो सकते हैं। होसकता है कि उन अनायतनों को प्रशंसनीय समझ कर-श्रद्धापूर्वक उनमें सम्मिलिन हो और यह भी संभव है कि उनको प्रशंसनीय तो न समझे-उनमें श्रद्धा न रखकर भी किसी के अनुरोव मादि से उन में शरीरतः सम्मिलित होना पड़े ! क्योंकि लोकव्यवहार में देखा जाता है कि व्यापारादि सम्बन्ध के कारण, अथवा सजातीय किन्तु विधर्मिषों से विवाहादिसम्बन्धों के कारण, यद्वा विनियों के राज्याअय मादिके कारण कापथमें श्रद्धा न रहते हुए भी लोगों को कापथस्था के साथ सम्पर्क रखना पड़ता है और उनका यथायोग्य विनय करना भी उनकेलिये आवश्यक होता है। ऐसी अवस्थामें शारीरिक सम्पर्क उस तरहका दोषाधायक नहीं हो सकता जैसा कि प्रशंसनीय समझकर किया गया सम्पर्क मथवा मानसिक प्रशंसा और वाचनिक संस्तव दोपाधायक होसकते हैं । मालुम होता कि संभवतः इसीलिये ग्रन्थकारने असम्मति और अनुत्कीतिके मध्यमें असंपृक्तिका उल्लेख करके यह सूषित किया है कि यदि सम्मति और उत्कीतिकी तरह ही सम्पर्क भी श्रद्धापूर्वक है-मोहितबुद्धिके कारण से है तो शारीरिक सहयोगके निमित्तसे भी सम्यग्दर्शन उसी प्रकार मलिन प्रथया अंगहीन समझना चाहिये जैसा कि शंका कांक्षा विचिकित्सा यद्वा अन्यदृष्टि प्रशंसा और संस्तवके कारण हुआ करता है।
इस तरह विचार करनेपर सम्यग्दर्शन की निरविचारता तथा सर्वाङ्ग पूर्णताको स्पष्ट करनेके लिये अमृदृदृष्टि अंगके प्रतिपादन करनेवाली इस कारिकाके निर्माण का प्रयोजन अच्छीतरह समझ में पा सकता है।