Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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पत्रिका टीका ग्यारह लोक
निर्भयता भी है। और इसीलिये सम्यग्दर्शन की निःशंकताका अर्थ भय और चलायमानता संदिग्ध प्रतीति इन दोनों से रहित ऐसा होता है और एसा ही समझना चाहिये ।
आगम में भय सात माने हैं जिनका कि आशय संक्षेपमें इस प्रकार हैं ।
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"मेरे इष्ट पदार्थो का वियोग न होजाय, अथवा अनिष्ट पदार्थों का संयोग न हो" इन प्रकार से इसी जन्म में जो निरंतर याकुलता बनी रहती हैं. उसको अथवा यह ऐश्वर्य यन सम्पति वैभव अधिकार आदि स्थिर रहेगा कि नहीं । कदाचित् यह सब नष्ट होकर मुझे दरिद्रता वो प्राप्त न होजायगी ।" इस तरह की आधि- मानसिक व्यथा चिन्ता जोकि जलती हुई चिनाके समा हृदयको दग्ध करती रहती हैं उसको कहते हैं। इहलोकभय । .
आगे होनेवाली सांसारिक पर्याय का नाम ही परलोक है। उसके विषय में "मेरा स्वर्ग में जन्म हो तो अच्छा अथवा कहीं मेरा किसी दुर्गनी में जन्न न हो जाय " इस तरह चित्तका मदा जो आकुलित, चिंतित - सकम्प या त्रस्त बने रहना इसको कहते हैं परलोक भयर :
atava कफ की पता होना अथवा भात उपधान मल उपमलों की प्रमाण या स्वरूपसे व्युति शरीर में जब होती है तब उसको कहते हैं - वेदना । इसके होनेसे पहले ही मोहोदय यश जो वित्तका व्याकुल रहना “मैं सदा निरोग रहूं, मुझे कभी भी कोई वेदना न हो" इस प्रकार से निरन्तर चिन्तित रहना अथवा मोहवश बुद्धिका मृति - आत्मस्वरूपमें बेहोश रहना वेदनामय है ।
वर्तमान पर्याय का नाश होने के पहलेही उसके विनाश की शंकापे और उसको सुरक्षित न रख सकने की भावनावश बौद्धों के क्षणिक बाद की तरह सर्व या आत्मनाशकी जो कल्पना होती हैं उनको कहते हैं श्रत्राण भय४ | मिध्यात्वके उदयसे जो सत का विनाश या असत की उत्पत्ति की बुद्धिमें मान्यता एकान्तिक भावना रहा करती है, जिससे अपने को सदा अरक्षित मानने के कारण सम्पता या व्याकुलता बनी रहती है उसको कहते हैं- अगुप्ति भयः । प्राणों के त्रियोग का नाम है मरण | सामान्यतया प्राण चार हैं । इन्द्रिय बल आयु और श्वासोच्छ्वास । यें अपनी निश्चित अवधि तक ही टिके रह सकते हैं। और उसके बाद इनका वियोग नियत है । परन्तु अज्ञानी जीव इनके वियोग से सदा डरता रहकर इस तरह विचार करता हुआ व्याकुल
१--हलोकतो भोतिः क्रन्दितं चात्र जन्मनि । दृष्टार्थस्। व्ययो माभून्माभून्मेऽनिष्ट संगमः ॥ ४८ ६ ।। स्थास्वती धनं नोवा देवान्मा भूहरिद्रता । इत्याशाधिश्चिता दग्धु' ज्वलिते वाऽगात्मनः ॥२०५॥ पंचाध्या गी० ॥ अ० २ अथवा साती भयोंके विषय में देखो परमाण्यात्म तरंगिणो अंक ६- २३-२८।। लोकः शास्वत एक एष इत्यादि। २--पंचाध्यायी अ० २-परलोकः परत्रात्मा भाविजन्मान्तरांशभाक । ततः कम्प इष ग्रासः भोतिः परजासोऽस्ति सा । भद्र मे जन्म स्वर्लोके माभून्मे जन्म दुर्गती । इत्यायाकुलितं चेतः साध्वसं पारलौकिकम् ॥ ।।११६-५१७।। ३-वेदनाऽऽगन्तुका बाधा मला कोपतम्तनी । भीतिः प्रागेवकल्पः स्यान्मोहाद्वा परिदेवनम् ||५६४|| उल्लाऽघोहं भविष्याम भामून्मे वेदना क्वचिद् । मूर्खेव वेदना भीतिश्चिन्तनं वा मुहुर्मुहुः ॥ ५२४॥। ४——– अत्राणं क्षणिककाले पक्षे चित्तणादिवत् । नाशात्मागं शनाशस्यत्रा तुमक्षमतात्मनः ॥ ५३१|| ५-६ माहस्योदयाबुद्धिर्यस्य चैकान्तवादिनी । तस्यैप्तिभीतिः स्यान्नूनं नान्यस्य काचित्५६६।।