Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रत्नकरण्ड श्रावकांचार
के अनुसार कोकादिक परिणामों का पमान आयुके अन्तमें हो जाना
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नरकादिक स्वाभाविक है ।
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सम्यग्दर्शन के विषय मुख्यतया चार है श्राप्त, आगम, गुरु और तत्र वा धर्म | निशंकित अंगके भी ये ही विषय हैं। फिर भी यहां पर इनमेंसे भी मुख्य विषय देवको मानना चाहिये | आचार्य सोमदेव ने कहा हैं कि "देववादी परीक्षेत पश्चाद वचनक्रमम् ११ । पहले देव की परीक्षा करनी चाहिये पीछे उनके वचन की । देव पूजा आदिके पाठ से भी ऐसाही मालुम होता है कि सम्यक्त्व के लिए जिनभक्ति, सम्पज्ञान के लिए श्रुतभक्ति और सम्पकचारित्र के लिए गुरुभक्ति मुख्य कारण है २ । और यह बात उचित तथा युक्तियुक्त एवं अनुभव में भी आने वाली है। क्योंकि आग आदिकी प्रमाणता एवं यथार्थ सफलता आदि उसके वक्त की यथाfar और प्रमाणता पर ही निर्भर हैं। वक्ता यदि सर्वज्ञ और वीतराग है तो उसके बचन भी प्रभाग माने जा सकते हैं और उसके अनुसार चलनेवाले के विषय में भी निःसंदेह और निशंक कहा जा सकता है कि यह वास्तविक हितरूप फलको अवश्य ही प्राप्त करेगा ।
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अतएव आयतनों में अथवा सप्त क्षेत्रों आदि में जिन प्रतिमाकीही मुख्यता समझनी चाहिये यही कारण है कि जिन चैत्यालय रहित गृहर और ग्राम आदि धर्म की पात्रता तथा निरन्तर धर्म कार्यों के प्रवर्तन की योग्यता के कारण हेय अर्थात् श्रनार्य क्षेत्र के तुल्य४ माने जा सकते हैं। वरों में अथवा ग्राम श्रादिमें कितने ही सत्शास्त्र विराजमान रहैं – सरस्वती भंडार आदिभी क्यों न रहे फिर भी गृहस्थ श्रावकों का मुख्य कर्तव्य जो कि अभिषेक पूजा आदि है जिन थालय के विना सिद्ध नहीं हो सकता है | यह श्रावक का घर है अथवा इस ग्राममें श्रावक निवास करते हैं इस बातका सहसा और स्पष्ट परिज्ञान जैसा जिन प्रतिमा या मन्दिरसे हो सकता है साथ भंडारों से नहीं । अन्थसंग्रह तो श्रजैनों में भी पाया जा सकता है । अतएव सम्यग्दर्शनका अनावरण सम्बन्ध देव-यास परष्ठी - जिन भगवान से हैं ऐसा समझना चाहिये।
इस तरह आगमका भूल वक्ता होने के कारण थोर तीर्थका प्रवर्तक होनेके कारण तथा गुरुओं का भी परमगुरु- मार्गदर्शक होनेके कारण सबसे प्रथम देवकें विषयमें और उसके बाद किंतु साथ ही आगम गुरु तथा तरच स्वरूप में भी सम्यग्दृष्टि अडिग रहा करता है; उसकी
१- देवमादौ परीक्षेत पश्चात्तदूषचनक्रमं । ततश्च तनुधानं कुर्यात्तत्र मतिं ततः ||१|| येऽविचार्य पुनरुचितद्वचि कुर्वते । तेऽन्धास्तत्र कन्यविन्यस्तहस्ताञ्छन्ति सद्गतिम् ॥२॥ पित्रोः शुद्धौ यथाऽपत्ये विशुद्धिरि दृश्यते । तथाप्तस्य विशुद्धये भवेदागमशुद्धता ॥३॥ यशस्तिलक आ० ६-३ ॥ २ - जिनेभन्तिर्जिनभक्तिर्जिने भक्ति: सदास्तु मे । सम्यक्त्वमेव संसारकारणम् मोक्ष कारणम् । श्रुते भक्तिः श्रुते भक्तिः ते भक्तिः सदास्तु मे । सञ्ज्ञानमेत्र संसार वारणम् मोक्षकारणम ॥ गुरोभक्तिः चारित्रमेत्र संस्कृत देवशास्त्रगुरुपूजा पाठ ३-४ देखो सागार धर्मामृत
५- दाणं पूजा भुक्खो सारयाण धम्भो । 'कुन्दकुन्द रथणसार ।
६ - प्रतिष्ठायात्रादिज्यतिकरशुभ स्वैरचरणस्फुरद्धर्मोद्धषं प्रसररसपूरास्तरजसः । कथं स्युः सागाराः श्रमण धर्माश्रमपदम् न यत्र दुर्गम् दलित कलिलोलाविवासित । सा० ध