Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रेनफरएश्रावकाचार
२०८ उपयोग न किया जाय तो वह नरक का कारण है। इसी तरह और भी अनेक निरतिशय पुण्यद्वारा प्राप्त विभृतियोंके विषय में कहा जा सकता है।
दूसरे अर्थके अनुसार जिन कारणभूत पुण्यप्रकृतियों के उदय से वह सांसारिक सुख प्राप्त हुआ करता है उनके बन्धकी निदानपरीक्षा करने पर मृलमें पाप कम अवश्य ही एक प्रधान कारण है यह मालुम हुए विना नहीं रहता । क्योंकि मोह या सकपाय भावोंकी सहायता के बिना भी कर्म में स्थिति एवं अनुभागका वंथ नहीं हो सकता४ | जब यह बात है तो पुण्य-फलके लाभमें भी पाप को कारण क्योकार नहीं माना जा सकता ! पारश्य माना जायगा । केवल प्रकृति प्रदेश बन्ध तो फलदनमें समर्थ नहीं है। अत एव सांसारिक सुखका बीज पाप है यह कथन भी अवश्य ही आगम और युक्ति से संगत है । फलतः जिसका कार्य और कारण दोनों ही पाप रूप है उस सांसारिक सुख में सम्य-दृष्टि को आग्था किस तरह हो सकती है ? कदापि नहीं हो सकती।।
इसके सिवाय पुण्य पापका विभाग कर्मा पेक्ष है आत्माका शुद्ध पद-सुखम्तभाव दोनों के सम्बन्धसे सपथा रहित है । शुद्ध धात्मपदकी दृष्टि में पुण्य भी पाप ही है । अतएव सांसारिक सभी सुख पापजन्य एवं पाप के जनक है । सम्यग्दृष्टि को जिमकी कि दृष्टि शुद्ध निश्चय नय के विषयकोही उपादेयतया वास्तव में ग्रहण करती है, ये सब सुख अनास्थेय ही रहा करते हैं।
सुख शब्दसे यहापर उसके कथित ४ प्रथमिसे पहले तीन अर्थ ही लेना चाहिये, यह बात पहले कही जा चुकी है । पहले तीन अर्थ कर्मापेक्ष हैं। और कर्मापेक्ष होनेसे कर्मपरवश, सान्त, दुःखासे :अन्तरितोदय, और पापचीज़ भी अवश्य हैं। क्योंकि इन चारी ही विशेषणों में परस्पर हेतु हेतुमद्भाव है।
अनास्था-आस्थाका न होना ही अनास्था है। आस्थाका आशय है स्थिति, विश्वास, आदरद्धि, भरोसा, प्रतिष्ठा, सहारा आदि। जिस श्रद्धा में चार विशेषणों से युक्त सुखके विषय में किसी प्रकारकी आस्था नहीं पाई जाती उसको कहते हैं अनास्था । ____ अनाकांक्षणा--का मतलर निःकांक्षितस्त्र है । सांसारिक सुखकी किसी भी प्रकारसे अभिलाफा न होना या न करना ही निःकांक्षितत्व है।
तात्पये---यह कि पूर्णशुद्ध सम्यग्दृष्टि अपने शुद्ध प्रात्मपदके सिवाय अन्य किसी मी पदको अपना स्वतन्त्र स्वाधीन शास्वतिक सर्वथा निराकुल और उपादेय नहीं मानना। प्रात्मामें पर पुद्गल के सम्बन्ध से जो २ विकार हैं अथवा होते हैं वे वास्तव में आत्माके नहीं हैं । शुद्ध प्रात्मान स्वरूप उन सभी विकारोंसे तत्त्वतः रहित हैं । एसी उसकी आस्था-श्रद्धा रहा करती है। और उसकी वह श्रद्धा निःशंक एवं निश्चल है यही कारण है कि वह अपने उसपदके सिवाय अन्य किसी भी पदकी आकांक्षा नहीं रखता। आत्माके के विकार नहीं है यह कहनेका कारण यही है कि वे परके निमिसको –संयोगसम्बन्ध विशेषको पाकर ही हुए हैं, होते रहे हैं और होते हैं। परके संबंध से रहितआत्मामें वे उत्पन्न नहीं होते, न कभी हुए हैं
--ठिदि अनुभागा कमायदो होति । द्रव्य स० ।