Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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नद्रिका टीका तेरहवां श्लोक अतएव यह बताना जरूरी है कि सम्पादृष्टि जीव धर्मकी प्रत्यक्ष मूर्तियों के प्रति किस सरह भक्तिपरायण रहा करता है जिससे कि उसकी अन्तरंग दृष्टि विवेक रुचि भक्ति और कर्तव्यपरायणताका पता चलता है और जिसके कि बिना उसका सम्यग्दर्शन वास्तविक सालोपात नहीं माना जा सकता | इस अभिप्रायको स्पष्ट करना भी कारिका का प्रयोजन है। __ शब्दोंका सामान्य विशेष अर्थ--यो तो काय शब्दका अर्थ यहुप्रदेशी होता है । बाल द्रव्य एक प्रदेशी होनेके कारण अकाय है । जीव, धर्म, अधर्म और श्राकाश ये चार काय द्रव्य तथा पुद्गल उपचारसे काय या बहुप्रदेशी द्रव्य हैं । शरीर भी अनेक पुद्रल स्कन्धोंका प्रक्यरूप बहुप्रदेशी होनेके कारण काय शब्दसे कहा जाता है। आगममें काय शब्दसे पांच स्थावर और एक बस इस तरह संसारी जीवके छः मेद भी गिनाये हैं। किंतु इन भेदोंके बनाने में काय शब्दका अर्थ शरीर बताना अभीष्ट नहीं है। वहां नो विवक्षित जीवविपाकी नामक की प्रकृतियोंके? उदयसे होनेवाली जी की पर्याय विशेष अर्थ इष्ट है । अतएव इसके छः भेद हैं जिनका कि सिद्धान्त शास्त्र में कायमागंणाके वर्णनके अन्तगत गुणस्थान एवं समासस्थानोंके आश्रयसे विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। जो आगपके वर्णित इस कागका अर्थ शरीर काते हैं वेतच स्वरूपसे अपरचित भ्रान्तबुद्धि और सिद्धान्त--आगमसे अनभिज्ञ है।
प्रकृत कारिकामें कायका अर्थ शरीर है : इसके बाग में पांचभेद गिनाये हैं। औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्मण । इनकी उत्पत्ति पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्मके उदयसे हुआ करती है । अन्तिम दोनों शरीर सभी संसारी जीवोंक पाये जाते हैं और जबतक वे संसार पर्यायसे युक्त हैं तबतक से भी उनके साथ अवश्य रहा करते हैं । आहारक शरीर ऋद्धिधारी विशिष्ट मुनियों के ही रहा करता है । वह क्वाचिक और कादाविक है । आदिक दो शरीर परस्पर विरोधी हैं । इनमेंसे पर्याप्त अवस्थामें संसारी जीवोंके कोई एक अवश्य रहा करता है । या सो औदारिक रहता है या वैक्रियिक । दोनों एक साथ नहीं रहा करते । प्रकृत वर्णन करनेमें प्राचार्यों को औदारिक शरीर ही अभीष्ट है । और वह भी मनुष्यों- मार्य मनुष्यों-सज्जातीय व्यक्तियोंका ही विवक्षित है । जैसा कि "रत्नत्रयपवित्रिते" विशेषणसे स्पष्ट होता है। कारिकामें कायके दो विशेषण दिये हैं एक "अशुचि" और दूसरा "रलत्रयपवित्रित", ___ स्वभावतोऽशुचौ ।-अशुचिका अर्थ है अपवित्र | स्वभावतः यह हेतुवाचक शब्द है । जो कि अपवित्रताके हेतुको बताता है । स्वभावका अर्थ होता है स-अपना ही भाव-भवन, होना परिणामन। मतलब यह है कि जो अपने परिणमनसे ही अशुचि है, अपवित्र है । स्वयं शरीर, शरीरकी वर्तमान दशा, वह जिनसे उत्पन्न होता है और शरीरसं जो उत्पन्न होता है वे तीनों ही अपवित्र हैं । माताका रज और मिताका वीर्य, तथा माताके द्वारा मुक्त अन्नका वह रस जिससे कि वह शरीर बनता है और वृद्धिको प्राप्त होता है, सभी अशुचि है । इस शरीरके 1-स और स्थावर नामकर्मको प्रकृतियां हैं जिनक कि उदयसे ससारी जीवकी ये अवस्थाएं बनती है।