Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
View full book text
________________
१२०
रत्नकरण्डश्रावकाचार
प्रयोजन-जिन्होंने मोच के उपाय को सिद्ध करलिया-प्राप्त कर लिया है उन प्राप्तों और उन्होंने जो कुल मागं बताया है उसको विषय करने वाले- प्रदर्शक आगम एवं तदनुसार चलने वाले निर्वाणपथिकोंके प्रति श्रद्धा का अनुकूल रहना मोक्षमागमें सम्यग्दर्शनकी प्रथम आवश्यक विशेषता है। यह ऊपरकी तीन कारिकाओं द्वारा बता दिया गया है। अब इस पर प्रश्न उठता है अथवा उठ सकता है कि यथार्थताका परिज्ञान किस तरह हो ? किसी के कहने मात्रसही किसी को वास्तविक देव आगम या गुरु मान लेना कहां तक ठीक माना जा सकता है। ग्रंथकारने भी तीनोंका ‘परमार्थ' विशेषण देकर श्रद्धा के विशेषरूप प्राप्त आगम और तपोभृत को यथार्थ और अयथार्थ इस तरह दो भागों में विभक्त कर दिया है। क्यों कि विशेषण दिया जाता है वह इतर व्यावृति के लिये ही दिया जाता है। अतएव यथार्थता को देखने के लिए उनके गुणदोषोंक तरफ दृष्टि देना आवश्यक हो जाता है । ऐसा करने के बाद जो आप्त आमम और गुरु निर्दोष
और गुणयुक्त सिद्ध हों और अपने अनुभवमें आवें उन्ही को यथार्थ मानकर उन्हींके उपदिष्ट मार्गपर चलना विवेक एवं घुद्धिमत्ता का कार्य माना जा सकता है । इसके विपरीत जो सदोष सिद्ध हो अथवा संसार के दुःखों से छुडाकर निर्वाध शाश्वत सुख के मार्ग में पहुँचाने के योग्य गुणोंसे पुक्त सिद्ध न हों उन्हें परमार्थरूप प्राप्त आगम गुरु नहीं मानना चाहिये । तथा ऐसे प्राप्तादिके चक्कर में पड़कर अपने कल्याण के मार्गको दुःखरूप बनाकर उसे अधिकाधिक दुखी बनाने से बचना चाहिये । ऐसे अपरमार्थरूप प्राप्तादिके द्वारा जो मार्ग बताया गया है वह दुःखरूप है। अतएव उससे सावधान करना उचित और आवश्यक समझकर इस कारिकाका निर्माण किया है। ___ इसके सिवाय श्रद्धानादि के विषय भृत अर्थ---द्रव्य तत्व एवं पदार्थ यदि युक्तिपूर्ण नहीं हैउनकी यथार्थता यदि निर्याध सिद्ध नहीं होती तो विषय के विपरीत रहने के कारण उनके द्वारा कल्याणका यथार्थ मार्ग भी किस तरह सिद्ध हो सकता है । वगलेको गरुड कहने या मानलेनेसे बगलेसे गरुडका काम तो नहीं हो सकता। इसीप्रकार जड पुद्र लादि को जीवादिरूप या जीव को जड ज्ञानशन्ध आदि मान लेने से भी जीव का प्रयोजन किस तरह निष्पन्न हो सकता है। वस्तुके यथार्थ स्वभावको धर्म कहा है | यदि वह य वार्थ नहीं है तो वह धर्म भी नही है । उससे वास्तनिक सुख की प्राप्ति न होकर दुखका ही अनुभव हो सकता है । मोह अज्ञान और कषाय ये तीनो दुखरूप हैं। इन तीनोंके धारक साक्ति स्वयं दुःखी है और उनके सम्बन्ध से दूसरे भी वास्तवमै दुःख के ही पात्र बनते हैं। फलतः ये तीनों ही कुधर्म और उनके धारक अथवा आश्रय इस तरह छह अनायतनर माने गये है। जो मोहयुक्त है वह प्राप्त नहीं जो द्रव्यादिका ठीक २ स्वरूप दिखाने में असमर्थ है वह यथार्थ आगम नहीं और जो कषाययुक्त है वह सच्चा तपस्वी १–सन्तस्तस्थं नहीञ्छन्ति परप्रत्ययमानतः यशस्तिलक ।।
मिथ्यात्वका आश्रय प्रतिमा और मन्दिर, अज्ञान का आश्रय कुशास्ता और कुचारिश का पाश्रय पाखण्डी साधा