Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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(स्लंकरभावकाचार
कुन्हाडी वृक्षकी छेदन आदि क्रिया करती हैं । किंतु उपमें यदि वेंट न हो तो वह उस काम को नहीं कर सकती। इस तरह से छेदनादि क्रियामें वृक्ष की लकड़ी भी निमित्त अवश्य है फिर भी छेदन क्रिया का मुख्यतया कर्तृत्व कुल्हाडीको ही हैं नकि उसके सहायक निमित्तभूत धेटको । जिसतरह कोई व्यक्ति विवश होकर शव का काम करता है तो उसका अपराध गुरु होनेपर भी गुरुतर या गुरुतम नही माना जाता । यह क्षम्य की कोटी में गिनलिया जाता है। इसी तरह संसार रूप बन्ध पर्याय में दोनों ही परस्पर में एक दूसरे के परिणमनमें निमित्त होते हुए भी एक को मुख्य और एक को गौण समझना चाहिये। स्यों कि कर्मपरवश जीवका अपराध क्षम्य है। सजातीय जीवके अपराध को पथपातवश सम्य पसाया जा रहा है यह बात भी नहीं है। देखा जाता है कि जीव सर्वथा स्वतन्त्र हो जानेपर पुनः उस कार्य में प्रास नहीं होता परन्तु पुल जीवोंको अपने आधीन बनाने के कार्य रूप अपराव से सर्वधा उपरत नहीं हुआ करता।
व्याकरण में मानी गई कर्म कर्व प्रक्रिया के अनुसार सुकरता३ आदि कारणोंस कर्म करण मादिको क ख प्रान हो जाता है और कर्ता गौण बन जाता है। इसी तरह प्रकृतमें यदि विचार किया जाय तो यद्यपि जीवही प्रगल कर्म के निमिस से संसार रूप परिणमन करता है, उसीको कत्त्व प्राप्त है। फिर भी पुल की मुख्यता के कारणोंपर जैसा कि ऊपर बताया गया है दृष्टि देनेसे जीव को गौणता और पुल को मुख्यता एवं कर्तृत्व प्राप्त हो जाता है।
जिस तरह संसार में बड़े बड़े नद हद और समुद्र श्रादिक रहते हुए भी घातक मेष को ही पसंद करता है उसीतरह सम्यग्दृष्टि जीपका परिणाम ही ऐसा होता है कि वह स्वतन्त्र मुख कोही पसंद करता है। पराधीन सुखमें रुचि नहीं रखता । बन्धन में पडे हुए इस्ती सिंह पशु पिजड़े में रखे गये तोता आदि पक्षी भी जब सुस्वादु भोजन की अपेक्षा स्वतन्त्र विहार को ही पसंद करते हैं तब मनुष्य- सम्यग्दृष्टि जीव का तो कहना ही क्या ? वह तो कर्म परवश रहकर यहां के सुखोंमें थास्था किस तरह रख सकता है। . सांसारिक सुखके जो चार विशेपण दिये हैं उनमें कर्मपरवश विशेषण मुख्य है। शेष तीन
१-कार्यायान्त्री हि कुन्तस्य, दण्डस्त्वस्य परिच्छपः ।। यश
२--तस्यां सत्यामशुद्धत्वं तद्द्वयोः सगुणच्युतिः ।। पंचा। तथा जीवकृतं परिणाम निमिसमा प्रपत्र पुनान्ये । स्वयमेव परिणर न्तऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥१२॥ परिणममानस्य चिनश्चिदात्मक स्वमपि स्वर भावः । भवति हि निमित्त मात्र पौगलिक कर्म तस्यापि ॥१३॥ पु. सिक
-प्रयोक्तु : सुकरक्रियत्वाल यन्ते शालयः स्वयमेव विनीयन्ते कुशलाशयाः स्वयमेव इत्यादि षत, या। ४-स्वच्छाम्भःकाला लोके, किं न सन्ति जलाशयाः । चातकस्याप्रहः कोऽपि यद्वाछत्यम्मुवात्पयः ।११३४।। आदि०प०१८1५-जीवितात्त पराधीताज्जीवानां मरा वरम् । तत्र चू०-४० । लोके पराधीन जीवितं विनिन्दितम् । निजात विभय समार्जित मृगेन्द्रपद संभावितस्प मृगेन्द्रस्येच स्वतन्त्रजीवन मविनिन्दितमभिनिन्दितमनवचमतिहयम् ॥ जी प० । भादस कवलंदन्ती स्वामिकुण्डलताडित रहि सोढग्यतां याति तिरश्चा वा तिरस्कृतिः । इत्र चू०५---३ ६-रोवै और बिखलाइ परो पिंजरामें सोता । लोकोक्ति