Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
View full book text
________________
चंद्रिका टीका लोक
५५
शयमें विशेष अन्तर नहीं है ।
शब्दका अर्थ स्पष्ट और प्रसिद्ध हैं । फिरभी लोक प्रसिद्ध असे जैनागममें मान गये इस शब्द के अर्थ में क्या विशेषता है; यह आगे चलकर लिखी जाएगी। सर्वमान्य सामान्य अर्थ यही है कि जो सबको जानता है । और विशिष्ट अर्थ वह समझना चाहिये जो कि स्व ग्रन्थकारने कारिका नं ७ में बताया है।
आगमेशी — शब्दका अर्थ है कि आगमपर अधिकार रखनेवाला-आगमका स्वामी : मनलब यह कि आगमका जो मूल या मुख्य-- उपज्ञ बना है उसको कहते हैं आगमेशी । इसमें भी स्वयं ग्रन्थकार आगे चलकर अपना आशय स्पष्ट करेंगे |
तात्पर्य - यह कि श्रेयोमार्गरूप धर्म के व्याख्यान और उसकी प्रामाणिकता का मूल आप ही है। जिस तरह नींव के बिना मन्दिर या जड के बिना वृच टिक नहीं सकता उसी तरह तथाभूत आश के बिना धर्म के वास्तविक स्वरूप का न तो किसीको परिज्ञानही हो सकता है और न उसके विषय में प्रामाणिकता का विश्वास ही हो सकता हैं। जगतमें इस सम्बन्ध में अनेक मिथ्या मान्यताएँ प्रचलित हैं जिनको कि न तो युक्तियांकाही समर्थन प्राप्त है और न जिनको अनु भी स्वीकार करता है । इसके सिवाय इस कथन के करनेवाले वे शास्त्र ही स्वयं पूर्वापर विरोध एवं भिन्न २ प्रकारका अर्थ करनेवाले आचार्योंकी विरुद्ध निरूपणाओं के कारण श्रप्रमाण ठहर जाते हैं
कोई २ धर्म के व्याख्यान करनेवाले आगम—वेद को अनादि मानते हैं; जब कि यह बात स्पष्ट है कि कोई भी शब्द विशेष विना उसके वक्ता के प्रवृत्त नही हो सकता । कोई २ उसको शरीर ईश्वरकृत बताते हैं । किंतु यह कोई भी विचारशील समझ सकता है कि शरीर के विना एसे शब्दों की इसतरह की रचना उत्पत्ति किस तरह हो सकती है। कोई २ उसको हिंसा जैसे महापाप का विधायक स्वीकार करते हैं। और कोई २ उन्हीं वाक्योंका भिन्न २ प्रकारका पर्य करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। ऐसी अवस्था में जब कि उसका मूल वक्ता ही सिद्ध न हो अथवा जिसमें संसार भ्रमण एवं महान दुःखपरम्परा के कारणभूत हिंसा जैसे पाप का समर्थन पाया आता हो उसका वक्ताही सशरीर नहीं है यद्वा उसका वक्ता निर्दोष है यह बात कौन विचक्षण स्वीकार करेगा, कौन प्रमाण मानेगा और किसके अनुभव में श्री सकेगा ।
इसके सिवाय लोगोंने आप्तका जैसा कुछ स्वरूप माना या बताया है उसको देखते हुए न तो उनकी सर्वथा निर्दोषता ही सिद्ध होती है और न सर्वज्ञता ही, क्योंकि कोई भी विद्वान् इस बात को स्वीकार करेगा कि वीतरागता एवं सर्वज्ञता के बिना यदि कोई भी व्यक्ति कुछ भी
1- जिसका आशय यह होता है कि अपने समय के प्रचलित सब विषयोंका सबसे बडा विद्वान | २. किसी के कथनका अनुवादादि न करके स्वनॅत्र नासे सर्वप्रथम वक्ता । ईश ऐश्वर्ये । भागमम् ईष्टे । आगमपर ऐश्वर्य रखनेवाला ।