Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
View full book text
________________
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
इस अवसर पर यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिये कि आम भगवान्की सर्वज्ञता और भागशिता दोनों ही बातोंका गत कारिका संयुक्त वर्णन किया गया है। उसमें अनेक सार्थक विशेषयों से युक्त सर्वज्ञ ही शास्ता कहा गया है। एव सर्वत्र और शारता दोनों को ही परस्परमें विशे
विशेष माना कहा जा सकता है। और इसीलिये सर्वज्ञ तथा उनके ज्ञानकी तरह देहली-दीपकन्यायसे दोनोंके मध्य में निक्षिप्त अनादिमध्यान्तताका सम्बन्ध भी सार्व शास्ता और उनके शासन आगमेशित्व से भी जुड़ जाता है। ऐसा कहना श्रयुक्त भी नहीं है | विचार करनेपर युक्त ही मालुम होता है। क्योंकि तीर्थकरों की तरह उनका तीर्थ भी प्रवाह रूपसे धनादिमध्यान्त ही है ।
इस तरह सम्यग्दर्शन विषयभूत प्राप्त आगम और तपोभुत में से प्रथम निर्दिष्ट आप्त के स्वरूप का वार कारिकाओं के द्वारा मिथ्या मान्यताओंका निरसन करने वाला और यथार्थ स्वरूप का बोध कराने वाला वर्णन पूर्ण करके अब ग्रन्थकर्ता थाचार्य दूसरे विषय आगम के वर्णन का प्रारम्भ करते हैं
प्राप्तोपज्ञमनुल्लंघ्य, मदृष्टेष्ट विरोधकम् ।
तत्त्वोपदेशकृत् सार्व, शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥ ६॥
अर्थ – प्राप्त परमेष्ठी भगवान् जिसके मूल यक्ता हैं, जो किसी भी द्वारा उल्लंघन करने योग्य नहीं हैं, जो दृष्ट- इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करने योग्य तथा इष्ट अनुमेय विषयका विरोधी नहीं है-ऐन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनुमान से जानने योग्य विषयके साथ जिसके कथनका कोई विरोध नहीं पडता, जो तत्त्वस्वरूप का प्रतिपादक है, और जो प्राणिमात्रके लिये हितकर तथा कुमार्गका खण्डन करने वाला हैं उसको शास्त्र समझना चाहिये ।
प्रयोजन1- ऊपर यह बताया जा चुका है कि संसारके दुःखों से छुटाकर संसारातीत परमोत्तम सुख रूपमें जीवको परिवर्तित करदेने वाला धर्म रात्रयात्मक है- सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप है । सम्यग्दर्शन के विषय भाप्त आगम और तपोभृत हैं। इनमें से भारतके स्वरूपका वर्णन ऊपर किया जा चुका है। उसके बाद क्रमानुसार आगनका और वर्णन करना न्याय प्राप्त हैं। अतः एव इस कारिका के द्वारा उसके यथार्थ स्वरूपका निर्देश किया गया है। यह ती एक प्रयोजन है ही ।
इसके सिवाय कुछ और भी प्रयोजन हैं । - श्राजकल इस भरत क्षेत्रमें हुँडावसि कालकी अनेक विशेषताएं ऐसी बताई गई हैं
काल प्रवर्तमान है, आगन में इस
१-~~असंख्यात कल्पकाल के जन्म में हुएडापसर्पिणा काल आता है। देखो त्रिलोक प्राप्ति गाया १६१५ | किन्तु चर्चासमाधान (भूधरदास जी ) चर्चा नॅ० १६८ के उत्तर में लिखा है कि दशाध्याय व सू० अ० १-१ की चनककीर्ति (१) ने भाषा टीका में लिखा है कि १४८ चौबीसी के बाद १ हुंडक और इतने ही इंडक के बाद त्रिरहकाल आता है । यथा एक्कसया श्रडियाला, चौबोसि गया यहांत हुंडकं । लेतिय हुंड गमाई | विरहकालो होदि मोच्खस्स ।